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ज्वर
देने का यत्र भी किया है कि शुक्रगत ज्वर में रोगी को अन्धेरा हो अन्धेरा दिखलाई देता है हृदय में छेदने की सी पीड़ा होती और मेढू में स्तब्धता पाई जाती है । चरक आत्मा के शरीर त्याग के समय प्राण वायु, अग्नि और सोम के साथ चले जाने का . उल्लेख भी किया है।
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मज्जागत ज्वर में तमः प्रवेश और मर्मच्छेद के लक्षणों का वर्णन किया गया है । वे ही लक्षण वृद्धवाग्भट ने शुक्रगत ज्वर के साथ दिये हैं । इसका अर्थ यह निकला कि शुक्रगत ज्वर मज्जागत ज्वर के आगे की अवस्था है । मज्जागत ज्वर एक कष्टसाध्य व्याधि है उसी के असाध्य स्वरूप का नाम शुक्रगत ज्वर दिया जा सकता है ।
पुरदिल नगर के समीप एक नगरिया नामक ग्राम है । वहाँ एक रोगी पं० भूदेवप्रसाद नाम का था । उसके शरीर का मांस समाप्त हो चुका था। भूख का नाम तक नहीं था । उदर में गुडगुड शब्द चलता रहता था । अतिसार का उपद्रव यदा कदा हो जाता था । उसकी मूत्र परीक्षा करने पर सदैव उसमें शुक्रधातु पाई जाती थी । वह भी बहुधा कहा करता था कि उसकी धातु क्षीण होती रहती है । मेरे विचार से यह ज्वरी शुक्रधातुगत ज्वर से पीडित था। डाक्टरों ने उसे तपैदिक करार दे दिया था । यक्ष्मा नाशक उपचार उसके लिए कभी हितकर पड़ा नहीं और शास्त्रोक्त शुक्रगत ज्वर में वर्णित मृत्यु ही उसे प्राप्त हुई ।
अस्तु, शुक्रगत ज्वर की कल्पना कर लेना कुछ कठिन नहीं । जीर्ण ज्वरी जो चिरकाल से रोगाक्रान्त हो जिसकी पहली ६ धातुएँ क्रमशः समाप्त हो रही हों और शुक्रस्राव एक नित्य घटने वाली घटना हो इसे पहचानने की सरलतम विधि है । यतः ज्वर शुक्र नामक सातवीं धातु में रहता है । इस कारण इसमें बहुत तेज ज्वर ऊपर नहीं पाया जाता। रोगी को तापमापक यन्त्र द्वारा ज्वर सदैव आवे यह भी आवश्यक नहीं । क्योंकि वह ज्वर जो थर्मामीटर स्पष्ट करता है रस, रक्त, मांस और मेदोधातुगत ही होता है । अस्थिगत, मजागत और शुक्रगत ज्यरों में पहले दोनों का आभासमात्र मिलता है तथा अन्तिम का आभास २४ घण्टे में कुछ ही क्षणों को हो पाता है । उसके मूत्र का वर्ण देखकर तथा उसकी शुक्रधातु का परीक्षण करके ही उसका पता लग पाता है ।
शुक्रधातुगत ज्वर के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद मिल सकते हैं पर इसका रोगी हृदयगति के रुकने से मरता है और मरने के पूर्व शुक्र का क्षरण करता है ये दो लक्षण ऐसे हैं जिनमें मतभिन्नता नहीं मिलेगी ।
शुक्रधातुगत ज्वर असाध्य माना गया है
रसरक्ताश्रितः साध्यो मेदोमांसगतश्च यः । अस्थिमज्जगतः कृच्छ्रः शुक्रस्थो नैव सिध्यति ॥
ऊपर हम धातुओं की दृष्टि से सप्तविध ज्वरों का वर्णन उपस्थित कर चुके हैं । उक्त वर्णन में एक बात यह बताना रह गया था कि बहुत से आचार्य धातुगत ज्वरों को मानना पसन्द नहीं करते। इसी कारण चक्रपाणिदत्त के द्वारा दी गई चरक टीका
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