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विकृतिविज्ञान कारण उसके विभिन्न और स्पष्ट लक्षण प्रगट होते हैं उन्हीं के आधार पर आचार्यों ने ज्वर को धातुओं की दृष्टि से सात प्रकारों में विभक्त कर दिया है।।
चिकित्सा का सर्वसामान्य विद्यार्थी भी इतना तो जानता ही है कि जब ज्वर आता है तो वह शरीर के तापांश को बढ़ा देता है इसके कारण रस, रक्त, मांस, मेदस् , अस्थि, मजा तथा शुक्र सभी का तापांश बढ़ जाता है। ज्वर में मैथुन करने वालों के बाहर आये वीर्य का तापांश लिया जावे तो वह शरीर के ऊर्ध्वंगत तापांश से थोड़ा बहुत अधिक ही मिलता कम नहीं। अतः ज्वर चाहे किसी धातुविशेष का हो अथवा अन्य किसी औपसर्गिक कारण से आया हो उसके कारण सम्पूर्ण शरीर व्यथित होता है और सम्पूर्ण शरीर के प्रत्येक अवयव में ही ज्वर का प्रभाव देखा जाता है।
तब फिर आयुर्वेदज्ञों की यह कौन कल्पना है जिसके फलस्वरूप धातुगत ज्वरों का विचार किया गया ? पीछे हमने व्रणशोथ प्रकरण में स्पष्टतः अङ्कित कर दिया है कि विविध ऊतियों में व्रणशोथ हुआ करता है। कहीं भी व्रणशोथ बन सकता है । जहाँ वह बनेगा वहाँ उस अंग के विशिष्ट लक्षणों के अतिरिक्त सर्वसाधारण संरम्भ (शूल, उष्णता, लालिमा और सूजन) अवश्य मिलेगा। जिस प्रकार व्रगशोथ प्रत्येक ऊति में मिलता है और उसके कारण उत्पन्न ज्वर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होता है उसी प्रकार विशिष्ट धातु को लक्ष्य करके ज्वरोत्पत्ति हो सकती है और उस विशिष्ट धातु को पीडित करते हुए विशिष्ट लक्षण भी मिल सकते हैं।
आधुनिकों द्वारा मान्यज्वरों का भी विचार करें तो विषमज्वर रस और रक्त के प्रभवस्थल यकृत् प्लीहा या जालकान्तश्छदीयसंस्थान के अन्तर्गत अपने उत्पादक जीवाणुओं को प्रश्रय देता है। भेल ने रसव्यापत्तिज रोगों का उल्लेख करते हुए इन्हें भी गिनाया है
अन्येद्युष्कं सततकं तृतीयकचतुर्थकम् । पित्तं लोहितपित्तं च रक्ताशीसि प्रलेयकम् ।।
विपाटिकांश्च तान् व्याधीन रसज्यापत्तिजान्विदुः । कालाजार नामक ज्वर का जीवाणु प्लीहा के अन्दर तथा जालकान्तश्छदीयसंस्थान के अन्तर्गत पाये गये अंगों में निवास कर ज्वरोत्पत्ति करता है।
आगे जो यक्ष्मा का वर्णन होने वाला है वह अपना स्पष्ट निर्देश करता है कि मानव शरीर के किसी भी अंग या ऊति में यक्ष्मा जीवाणु के कारण ज्वरोत्पत्ति तथा अन्य क्षय दर्शक लक्षण पाये जा सकते हैं। यक्ष्मा में ज्वर निरन्तर बना रहता है। विविध अंग उसके कारणभूत जीवाणु को अपनी शरण में लेकर मानवशरीर पर विपत्ति बुलाते रहते हैं। आयुर्वेद शारीरिक दोष धातु और मल को शरीर का मूल मानकर चलता है। इस कारण कारणभूत जीवाणुओं का कोई विशेष विचार न करते हुए यदि उसने धातुस्थ ज्वरों की कल्पना स्वीकार कर ली हो तो कोई आपत्ति का विशेष विषय नहीं है। ऐसी कल्पना की जा सकती है और उसके लिए जिन लक्षणों की अभिव्यक्ति उसने की है वह यथार्थ तथा मूर्त तथ्यों पर अवलम्बित हैं ऐसा मानकर
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