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ज्वर
३४१ विविधदुःखकरभावेग विषण्णवित्तः स्यात् तदा चातुर्थकादिज्वरी तृतीतकादिज्वरी स्यान्मनसो दुर्बलत्वात् । जैसे ऋतु आदि के बल से व्याधि बलवान् और अबल से दुर्बल होती है वैसा मन से भी सम्भव है पर वह दूसरे ढंग का है उस प्रकार का नहीं। ऋत्वादि काल से तो शनैः शनैः रूपक बंधता है पर यहाँ तो सहसा बिजली की तरह कार्य होता है । पुत्र या पौत्र जन्म का हर्ष सुनकर तृतीयक एक दिन आगे चला जाता है उस दिन नहीं होता और वह फिर चातुर्थक संज्ञक बन जाता है। इसी प्रकार जो ज्वर कल आने वाला है वह किसी की मृत्यु का समाचार सुन कर तुरत आ जाता है । मन का शरीर पर कितना प्रभाव है इसके लिए एक उदाहरण अनुपयुक्त न होगा। पुरदिलनगर के समीप एक ग्राम बरीकानगला है वहाँ एक वृद्ध ठाकुरसाहब त्रिदोषज सन्तत ज्वर में पड़े हुए अन्तिम श्वासें गिन रहे थे। देखने की शक्ति जा चुकी थी श्रवण शक्ति जवाब दे रही थी हमारे अग्रज एक कुशल चिकित्सक हैं। वे वहाँ उपस्थित थे कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाई देता था जिससे ठाकुर साहब की रक्षा की जा सके। भाई साहब ने वहाँ पूछा कि किसी को रोगी का रुपया तो नहीं देना। इस पर उन्हीं के एक भाई ने कहा कि मुझे इनके तीन सौ रुपये देने हैं। वैद्य जी ने उनसे रुपये मँगवाये और रोगी के कान पर बहुत जोर से पुकारा कि अमुक साहब आप के रुपये दे रहे हैं लेलो । ज्यों ही उसने सुना उसमें चेतना शक्ति दौड़ गई नेत्रों में ज्योति आ गई और रोगी रुपया सम्हालने के लिए उठ बैठा। उसका रोग जाता रहा दूसरे दिन उसे पथ्य देना पड़ा और वह ठाकुर भोलूसिंह अभीतक जीवित हैं जब कि इस घटना को घटे बारह वर्ष बीत चुके। ___ मन की तरह बुद्धि बल भी रोग के बढ़ाने या घटाने में अपना कार्य करता है । बुद्धि बल से सन्तत सततकादि में बदल जाता है। बुद्धिवल से ही प्रज्ञापराध की रोकथाम की जाया करती है। उसके लिए बलिमङ्गलद्रानस्वस्त्ययनपूजोपहारदेवगुरुवृद्धसिद्धऋषि आदि की तथा ओषधियों की सेवा आती है। बचपन में मैं स्वयं एक बार एकतरा ज्वर (अन्येवूष्क) से पीडित हुआ। महीने भर तक ज्वर आता रहा औषधोपचार व्यर्थ सिद्ध था। मेरी माँ जिसे मैं बीबी कहता था बहुत चिन्तित थी। एक दिन बीबी मुझे नगर के बाहर एक तालाब पर ले गई। उसने मेरे पादांगुष्ठ से सिर तक सात बार कच्चा सूत नापा और समीप के एक छोटे बबूल के पेड़ पर लपेट दिया और मेरे हाथ जुड़वा कर कहलवाया कि हे देवता मेरा ज्वर लेलो । उसके बाद तालाब के पानी में मुख धुलवाया और मुझे बता दिया कि अब ज्वर यहीं रह गया। घर आने पर मुझे पूर्ण विश्वास था ही कि ज्वर नहीं आवेगा और हुआ भी ठीक वैसा ही । आज इस घटना को लगभग पच्चीस वर्षे हो गये मुझे विषम या कोई भी ज्वर नहीं आया। __ अर्थवशात् या पूर्व कर्मों के कारण भी सन्तत सतत में बदल जाता है। चातुर्थक तृतीयक बन जाता है। यह प्राक्तन कर्म वाद का प्रचलन वह आगे की सीढ़ी है जहाँ आधुनिक मनोवैज्ञानिकों को पहुँचना अभी शेष है सम्भवतः उन्हें यहाँ तक पहुँचने में
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