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विकृतिविज्ञान
या वसन्त में अल्पबल होकर प्रबल से दुर्बलता को पूर्व से अनु को प्राप्त होने लगते हैं। इसी प्रकार कफ प्रधान ग्रीष्म या शरत्काल में अल्पबल होकर सन्तत से सततकादि में बदल जाते हैं ।
अहोरात्र बल से भी चातुर्थक तृतीयकादि में बदल जाते हैं और अहोरात्रबलात् तृतीयक चातुर्थक में बदल जाता है । वह इस प्रकार होता है कि मान लो कि रूक्षोष्ण गुण में कुपित वात प्रधान चातुर्थक हो तो वह ग्रीष्म ऋतु में दिन में बलवान् होकर तृतीयक रूप को प्राप्त हो जा सकता है। शीत गुण कुपित वात ग्रीष्म में बलहीन होकर चतुर्थक को पचमक या षष्ठक बना देगी या उसे नष्ट ही कर देगी । पित्त प्रधान दोष शरदऋतु में लब्धबल दिन में होने से चतुर्थक को तृतीयकादि में बदल देगा । कफ प्रधान दोष हेमन्त वसन्त ऋतुओं में अहोरात्र का बल लेकर सन्ततादि अतिबल ज्वरों में परिणत कर देगा | और सन्ततादि वात प्रधान होने पर शरद्वसन्तादि में अहोरात्र बल खोकर सततादि भाव को प्राप्त करेंगे । पित्त प्रधान दोप शीत ऋतु में अहोरात्र बल खोकर उसी प्रकार नीचे उतर आयेंगे । कफ प्रधान दोप ग्रीष्म के अहोरात्र बल से हीन होकर नीचे उतर आयेंगे । अहोरात्र का ज्वरों पर प्रभाव कतिपय विद्वान् ही मानते हैं क्योंकि एक एक अहोरात्र के बलाबल से वह वह ज्वर बली या दुर्बल होता है यह मानना ऋत्वादि अन्य भावों के भी प्रभाव को छोड़ एकान्तेन प्रायः नहीं लिया जा सकता । परन्तु अहोरात्र का प्रभाव होता है तथा हो सकता है इसे भूलना नहीं है ।
वात प्रधान चातुर्थक यदि हो तो वह व्यायाम, अपतर्पण, रूक्षण, लघु आदि हेतुओं को प्राप्त करके और अधिक वात दोष युक्त हो जाता है और तृतीयक रूप को धारण कर लेता है । पित्त प्रधान चातुर्थक कट्वम्लादि सेवन से पित्ताधिक्य प्राप्त करके तृतीयक रूप धारण कर लेता है । इसी प्रकार कफ प्रधान गुरु मधुरादि के अत्यधिक सेवन से कफ बल को प्राप्त कर चातुर्थक से तृतीयकादि रूप ग्रहण कर लेता है । इसी का विलोम यदि वात प्रधान सन्ततादि को मधुराम्ल गुरु पदार्थ सेवन कराये जावें तो उसकी वात का स्वरूप घट जावेगा और सन्तत सततादि में बदल जावेगा । तथा पित्त प्रधान सन्ततादि को तिक्त मधुर कषायादि पदार्थ देने से उसका बल कम हो जावेगा और वह सततकादिक में परिणत हो जावेगा । एवं कफ प्रधान सन्ततादि पीडितों को कटुतिक्तकषायादि कफघ्न पदार्थों या विहारादिक का उपयोग कराया जावेगा तो कफ का दोष क्षीण होकर सन्तत सतत में सतत अन्येद्युष्कादि में बदल जायेंगे ।
मन के कारण भी व्याधि के चलते हुए क्रम में अन्तर पड़ जाता है । यह प्रकरण आधुनिक मनोविज्ञान वेत्ताओं के लिए कौतूहल कारक होगा पर प्राचीनों ने मानसिक कारणों को सदैव अपने स्थान पर श्रद्धा पूर्वक देखा है और मन के द्वारा होने वाले प्रभावों का मूल्यांकन यथोचित किया है । गंगाधर लिखता है
न तु ऋत्वादिबलाद्वद्याविबलम् अबलाद्वयाधेरबलमिव मनसो बलाद्वयाधिबलमबलाद्वयाधेरबलमिति ख्यापितम् । तथा च सन्ततादिज्जरी यदि धनबन्धुपुत्रपौत्रादिनानाहर्षकर भावेगातिप्रमोदित चित्तः स्यात् तदा मनसः प्रबलत्वात् सततादिज्वरी स्यात् यदि धनवान्धवपुत्रपौत्रादिविनाशादि
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