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विकृतिविज्ञान यहाँ जब कफपित्तोल्बण दोष पहुँचते हैं तो बहुत अधिक प्रकुपित नहीं हो पाते और एक दिन छोड़ कर होने वाला तृतीयक संज्ञक ज्वर उत्पन्न हो जाता है। ___२. वात कफोल्बण त्रिदोष युक्त तृतीयक-इसमें वात और कफ ये दोनों दोष अधिक बली होते हैं। यह विषमसंज्ञक ज्वर पृष्ठ स्थान से आरम्भ होता है। वेदना पृष्ठ से आरम्भ होकर सम्पूर्ण शरीर में पहुँच जाती है तथा वातपित्त दोनों पृष्ठभाग में जो पित्तस्थान माना जाता है अधिक जोर नहीं कर पाते और एक दिन छोड़कर होने वाला तृतीयक संज्ञक ज्वर उत्पन्न हो जाता है।
३. वातपित्तोल्बण त्रिदोषयुक्त तृतीयक-इसमें वात और पित्त ये दोनों दोष अधिक बली होते हैं। यह विषमसंज्ञक ज्वर शिर से प्रारम्भ होता है । शिर में पहले वेदना होती है जो सम्पूर्ण शरीर में जाती है। शिर श्लेष्मा का स्थान होने से यहाँ वात और पित्त का कोप बहुत अधिक बलवान् न हो सकने के कारण एक दिन छोड़ कर होने वाला विषमसंज्ञक तृतीयक ज्वर उत्पन्न हो जाता है।
जेज्जट ने त्रिकस्थान में आरम्भ होने वाले कफपित्तोल्बणता युक्त तृतीयक ज्वर के सम्बन्ध में जो अपनी व्याख्या दी है उसका एक अंश हम इसलिए प्रदर्शित करते हैं ताकि ऊपर जो हमने अर्थ किया है उसका आधार भी पाठक जान लें। वह कहता है कि
त्रिकग्राही वेदनया त्रिकव्यापी, त्रिकस्य वातस्थानत्वेन तद्गतौ पित्तकफावन्यस्थानगतत्वेन दुर्बलौ तृतीये दिने वेगं कुरुतः, यदि तु स्वस्थानस्थितौ स्यातां तदा सन्ततज्वरमेव कुर्यातामिति जेज्जटः।
ऊपर जो तृतीयक ज्वर का वर्णन है उसी प्रकार चातुर्थक ज्वर के उसके प्रभाव का भी विचार रखते हुए निम्न भेद माने जाते हैं:
१. श्लैष्मिक चातुर्थक-इसमें त्रिदोषात्मक स्वरूप होने पर भी श्लेष्मोल्बणता विशेषतया पाई जाती है। इसका प्रादुर्भाव जंघाओं में पीड़ा के साथ होता है । जंघा वातस्थान है और इसलिए कफोल्बण दोष उतने बलपूर्वक प्रकोप न करने से दो दिन बीच में छोड़ कर होने वाला चातुर्थक बन जाता है।
२. वातिक चातुर्थक-इसमें चातुर्थक त्रिदोपात्मक रूप होने पर भी वातोल्बणता विशेष करके पाई जाती है। इसका आरम्भ शिरःशूल के साथ हुआ करता है। शिर श्लेष्मस्थान है अतः वातदोष उतना प्रकोप यहाँ नहीं कर सकता जितना स्वस्थल में उससे सम्भव था। अतः दोष शनैः शनैः प्रकोप करता है और शिरःशूल के साथ दो दिन छोड़ कर आने वाला चातुर्थक रूप धारण कर लेता है।
चातुर्थक ज्वर के अन्दर श्लैष्मिक और वातिक रूप आने से दो प्रकार की शंकाएं विकृतिवेत्ताओं को हो सकती हैं एक तो यह कि चातुर्थक त्रिदोषात्मक है या वहीं और दूसरी यह कि पित्तज चातुर्थक होता है या नहीं।
चातुर्थक ज्वर त्रिदोषज है इसके लिए दूर जाकर प्रमाण ढूंढने की कोई अवश्यकता नहीं है स्वयं चरक का निम्न वचन ही पर्याप्त है
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