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विषमत्वं सन्तर्पणमपतग विषमकालोऽनियतपूर्वाह्लाद्यागमकालः । तथा च यः सततादिरेकस्मिन्नहनि पूर्वाले भूतः सोऽन्यस्मिनपराले पि भवन् दृष्ट इत्येतत्त्रयं विषसंज्ञाया हेतुः अनुषङ्गवान्यः स्पे नैव हेतुना निवृत्तः पुनरनुषज्यते एतदपि संज्ञाहेतुः ॥
इन्दु ने जो कुछ कहा है उसका सारांश निम्न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है
१. धातुमाही सोतन के मूल स्थूल और प्रतान सूक्ष्म होते हैं। जैसे जैसे वे स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होते जाते हैं उसी प्रकार वे दूर से दूरतर और दूरतम भी होते जाते हैं।
२. यदि अल्पमात्रा में दोष इन स्रोतसों में होकर गमन करें तो वे शनैः शनैः तथा बहुत देर में अपने गन्तव्य स्थान को पहुँच पाते हैं वे निश्शेष सम्पूर्ण शरीर में प्राप्त नहीं हो पाते इसी कारण उनके द्वारा उत्पन्न विषमज्वर को विच्छिन्न सन्ताप नामक संज्ञा दी जाती है ।
३. जब प्रभूत ( बहुत से ) दोष अतिस्थूल मुखवाले स्रोतसों में होकर शीघ्र ही महानिम्ननिकट भागों में चले जाते हैं तब सन्ततज्वरोत्पत्ति होती है।
४. अन्य दोष भूकमसुखस्रोतसों में होकर जब महानिम्नभाग से दूर परिणाहादि या अन्तर्वर्ती भागों ओर रक्तादि भागों से धीरे-धीरे जाते हैं तो सततज्वरोत्पत्ति होती है।
__५. उससे भी सदोष जब सूक्ष्मतर लोतस मुखों के द्वारा दूरतर भागों में जाते हैं तो और भी धीरे-धीरे पहुँचने से अन्येद्यष्क ज्वरोत्पत्ति होती है।
६. जब अत्यल्प दोष सूचमतम स्रोतसों में होकर दूरतम देश में प्रविष्ट होते हैं तो उनकी गति और मन्द हो जाती है और इसके कारण तृतीयक तथा और भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म मार्गों से दूरातिदूरवर्ती भागों में दोषों की अत्यल्प मध्य के जाने से चातुर्थक ज्वरोत्पत्ति होती है ।
७. सन्ततज्वर मासों से जाता है अतः उसे औषध सरलता से वश में कर लतो है अतः सन्तराज्यकाल रोगी जल्दी ठीक हो जाया करता है। सततादि ज्वराक्रान्त रोगी क्रमानुक्रम से देर में ठीक हो पाते हैं। ओषधि को दूरस्थ भागों में जाने के लिए रसवाही रक्तवाही आदि स्रोतों द्वारा करना पड़ता है। कहीं कहीं धातुक्रम से ओषधि को जाने से देर लगती है इसी कारण सन्तत के आगे सततादि की चिकित्सा में बराबर देर होती चली जाती है। और विषम का विषम ही प्रारम्भ होता है और उसकी चिकित्सा की व्याप्ति भी विषमतया ही हुआ करती है।
दोषदृष्टया विभेद दोषानुसार तृतीयक के निम्न ३ भेद होते हैं:
१. कफपित्तोल्बण त्रिदोष युक्त तृतीयक-इसमें कफ और पित्त ये दोनों दोष अधिक बली होते हैं। यह विषयसंज्ञक ज्वर त्रिक स्थान से आरम्भ होता है। त्रिक स्थान में पहले वेदना होती है जो सर्वशरीर में पहुँचती है। त्रिक वातस्थान है।
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