________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ज्वर
३३३ और जब वह आमाशय में पहुँचता है तो जाठराग्नि को कुपित कर ज्वर के वेग को २४ घण्टों में केवल एक बार ही कर पाता है। उसके पश्चात् हीनबल होकर पुनः हृदयगत श्लेष्मस्थान में चला जाता है । यह अन्येद्यष्कज्वर या एकाह्निकज्वर का कारण स्पष्ट करता है । इस प्रकार दिन या रात्रि में यहाँ एक ही प्रकोप करण बन पाता है।
आगे मांसगत दोष मेदोवहासिराओं का अवरोध करके मेदो मार्ग का संश्रय करते हुए कण्ठ में अवस्थित हो जाते हैं। कण्ठस्थ दोष एक दिन रात्रि में हृदय तक आकर उस दिन ज्वर करने में समर्थ नहीं हो पाते और वे दूसरे दिन हृदय से आमाशय में आकर जाठराग्नि को बहिर्मुख करके ज्वरोत्पन्न करते हैं। इस प्रकार ज्वर के वेग के एक बार चढ़ने के ४८ घण्टे बाद दूसरी बार ज्वर चढ़ता है जिसे हम तृतीयकज्वर कह कर पुकारते हैं।
इसी प्रकार मेदोमार्ग का संश्रय करके अस्थि और मजागत दोष शिर में बैठ जाते हैं । ये मूर्द्धस्थ दोष एक अहोरात्र में शिरसे कण्ठ में आ पाते हैं और उस दिन ज्वरोत्पत्ति नहीं करते । कण्ठ से दूसरे दिन हृदय तक आते हैं और उस दिन भी ज्वरोत्पत्ति नहीं करते तथा तीसरे दिन ठीक ७२ घण्टे बाद वे दोष आमाशय में आकर कोष्टाग्नि को बहिर्मुख करके ज्वर का वेग उत्पन्न कर देते हैं और पुनः हीन बल होकर शिर को लौट जाते हैं । यह चातुर्थक ज्वरोत्पत्ति का इतिहास है।
प्रलेपकज्वर सुश्रुत ने सतत, अन्येशुष्क, तृतीयक और चातुर्थक ज्वरों की सम्प्राप्ति बतलाते हुए एक प्रलेपक ज्वर की सम्प्राप्ति और दी हैतथा प्रलेपको ज्ञेयः शोषिणां प्राणनाशनः। दुश्चिकित्स्यतमो मन्दः सुकष्टो धातुशोषकृत् ॥
यह प्रलेपक ज्वर निरन्तर रहता है। यह एक प्रकार का मन्द ज्वर है जो धातुओं का शोषण करता है तथा शोषियों के प्राण का नाशक होता है। इस ज्वर के करनेवाले दोष सर्व सन्धियों में जो कफ स्थान है वहाँ निवास करता है और सन्धियों में से किसी न किसी से दोष दिन-प्रतिदिन क्या प्रत्येक समय आमाशय में आते रहते हैं जिसके कारण प्रत्येक समय ज्वर बना रहता है। ____ आधुनिक काल में विषमज्वरकारी चक्रों (साइकिलों) का बहुत वर्णन होता है। सततज्वरकारी जीवाणुओं की साइकिल दिन में दो बार पूर्ण होती है इस कारण ज्वर दो बार आता है। अन्येशुष्क की एक बार पूर्ण होने से २४ घण्टे में एक बार ज्वर होता है तृतीयक ज्वर की साइकिल ४८ घण्टे में एक बार पूर्ण होती है और चातुर्थक की ७२ घण्टे में एक बार इसलिए ज्वर क्रमशः एक दिन छोड़कर अथवा दो दिन छोड़ कर आता है। आयुर्वेद ने इस विषय में सहस्रों वर्षों पूर्व से अपनी एक निश्चित कल्पना बना रखी है। वह ज्वरोत्पत्ति श्लेष्मस्थान विशेषकर आमाशय से मानता है । आमाशय में दोषों के प्रकोप द्वारा जाठराग्नि का बहिर्मुख होना उसने सर्व प्रथम स्वीकार किया है अतः वह जब तक दोष आमाशयस्थ नहीं हो जाते तब तक ज्वरोत्पति का होना वह सम्भव नहीं समझता। इसीलिए हृदय, कण्ठ, शिर और सन्धिस्थलों में व्याप्त दोषों
For Private and Personal Use Only