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विकृतिविज्ञान
सेंधों का रसास्वादन करते हुए प्रकृति द्वारा संरक्षित इस विधि को देखकर परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करते हुए थकते नहीं। ठीक सेंधा की तरह ही शरीर में वात, पित्त कफादि के प्रदूषक भाव शरीर दूष्य रूपी भूमि में बीजवत् पड़े रहते हैं और शरद् में पित्त, वसन्त में कफ और प्रावृट् में वात के उपद्रवों के रूप में फूट पड़ते हैं। तृतीयक या चतुर्थक ज्वर जो एक या दो दिन तक विश्राम लेकर धातुओं से पुष्ट होकर तथा बल पाकर पुनः कुपित हो जाते हैं और ज्वर का ठीक समय पर वेग हो जाता है।
सततकादिकारक दोष वेग करके गतबल हो जाते हैं। गतबल होने के कारण वे अपनेअपने रक्तादि स्थानों में ठहर जाते हैं फिर काल पाकर पुनः बलवान बनने और ज्वरोस्पत्ति कर देते हैं । 'स्वे स्वे' के स्थान पर 'श्लेष्मस्थाने' ऐसा पाठ है। उसका तात्पर्य देते हुए गंगाधर लिखते हैं__ स्व-स्व-निदानविशेषैर्जनितकोपविशेषेण जातस्वभावविशेषा मला दोषाः श्लेष्मस्थाने आमाशये हृदये कण्ठे शिरसि च व्यवस्थिताः सन्तो यथाक्रमं द्विकालमेककालं दिनैकं क्षिप्त्वा एककालं दिनद्वयं क्षिप्त्वा एककालं वेगं कृत्वा क्रमेणामाशयं प्राप्य ज्वरं कृत्वा कृतवेगत्वात् तद्दिनमेव पुनः स्वस्थानं गत्वा च गतबला हीनबलाः सन्तो वै तत्र वर्तन्ते, पुनश्च स्वभावात् संवृद्धाः सन्तः स्वे काले प्रतिदिन-द्विकालैककालदिनैकक्षिप्तैककालदिनद्वयक्षिप्तककाले नरं ज्वरयन्तिकि अपने-अपने हेतुविशेष से उत्पन्न विशेष स्वभावों से युक्त परिस्थिति-विशेष के कारण प्राप्त गुणों से युक्त वातादिदोष श्लेष्मस्थान १. आमाशय, २. हृदय, ३. कण्ठ अथवा ४. शिर में व्यवस्थित हो जाते हैं और यथाक्रम दो बार, एक बार, एक दिन छोड़कर एक बार अथवा दो दिन छोड़कर एक बार वेगोत्पन्न करके उसी क्रम से आमाशय में पहुँच ज्वर उत्पन्न कर देते हैं। ज्वर का वेग समाप्त हो जाने पर उसी दिन पुनः अपने स्थान में जाकर गतबल या हीनबल होकर रहते हैं फिर स्वभावात् पुनः विवृद्ध हो जाते हैं और फिर अपने अपने काल अर्थात् दो बार, एक बार, एक दिन छोड़कर एक बार अथवा दो दिन छोड़कर एक बार वेगोत्पन्न करके ज्वर उत्पन्न करते हैं। इसी को सुश्रुत ने अपने शब्दों में यों व्यक्त किया है
क्षामाणां ज्वरमुक्तानां मिथ्याहारविहारिणाम् ।दोषः स्वल्पोऽपि संवृद्धो देहिनामनिलेरितः॥ सततान्येशुष्कत्र्याख्यचातुर्थान् सप्रलेपकान् । कफस्थान-विमागेन यथासंख्यं करोति हि ॥ अहोरात्रादहोरात्रात् स्थानात् स्थानं प्रपद्यते । ततश्चामाशयं प्राप्य धोरं कुर्याज्ज्वरं नृणाम् ।।
जब दोष आमाशय में स्थित होता है तो वह स्वकाल पाकर कालस्वभावानुसार वृद्धि को पाता है । और दिन में एक बार ज्वर हो जाता है। ज्वर का वेग दोष के गत बल होते ही घट जाता है और दोष पुनः आमाशय में ही रुका रहता है और पुनः स्वकाल पाकर और कालस्वभावात् एक बार रात्रि में फिर चढ़ जाता है। यह वर्णन हुआ सततज्वर का जो रस वा रक्ताश्रित होकर रहता है। ___ अन्येशुष्क ज्वर में दोष मांसाश्रित होता है और वह मेदोवहासिराओं को अवरुद्ध कर देता है अतः आयुर्वेद की कल्पनानुसार यह हृदयस्थ श्लेष्मस्थान से सम्बद्ध माना जाता है। यह दोष हृदय से आमाशय तक आने में एक काल का समय खा जाता है
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