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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २०३ मस्तिष्ककाण्ड के ऊपर होती हैं रक्त से अतिपूर्ण ( engorged ) हो जाती हैं। मस्तिष्क के कटे हुए धरातल पर असंख्य छोटी छोटी वाहिनियां धूसर और श्वेत दोनों भागों में स्पष्टतः दीख पड़ती हैं। नियमतः ( as a rule ) यह अधिरक्तता मस्तिष्ककाण्ड ( brain stem ) में जितनी अधिक होती है उतनी मस्तिष्क गोलार्दो ( cerebral hemispheres ) में नहीं होती। यद्यपि व्यापक मस्तिष्कपाक का निदान केवल देखने मात्र से नहीं हुआ करता पर चतुर्थनिलय की भूमि में छोटे छोटे रक्तस्राव देख कर ब्वायड ने कई बार इस रोग का निदान कर दिया था जो आगे ठीक निकला।
अण्वीक्षण करने पर जो विक्षत दीख पड़ते हैं उन्हें अन्तरालित और जीवितक दो प्रकारों में ले सकते हैं । अन्तरालित विक्षत की मूलविकृति का नाम है प्रचण्ड वाहिन्य विस्फारण ( intense vascular dilatation) जो ब्वायड को अपनी सम्पूर्ण मृत्यूत्तर परीक्षाओं में देखने को मिला था तथा कुछ शीघ्र मारक प्रकारों में तो केवल यही लक्षण दिखाई दिया था । रक्तस्राव जो बहुत सूक्ष्म होता है और जो केवल १० रुग्णों में ही उसे मिला था वह छोटी वाहिनियों के चारों ओर के ( परिवाहिनीय) थोड़े क्षेत्र तक ही सीमित रहता है।
अत्यन्त परिचित विक्षत होता है कोशाओं का परिवाहिन्य मणिबन्ध ( perivascular cuff of cells ) व्रणशोथकारी कोशा उस लसी अवकाश तक सीमित रहते हैं जो मस्तिष्क की वाहिनियों के बाह्य और मध्यचोल के बीच में स्थित रहता है और जिसका सम्बन्ध ब्रह्मोदकुल्या के साथ होता है। इस अवकाश को वर्चीरौबिन अवकाश ( Virchow-Robin space ) कहते हैं । कभी कभी ये कोशा इतने बढ़ जाते हैं कि परिवाहिन्य अवकाश जिसे हिज का अवकाश या हिजावकाश ( space of His ) कहते हैं को भी आप्लावित कर लेते हैं। वैसे तो हिजावकाश पूरा ही रिक्त रहा करता है। कोशाओं के इस परिवाहिन्य मणिबन्ध को देख कर यह विचार उठ सकता है कि वह कदाचित् व्यापक मस्तिष्कपाक में ही विशेष करके देखा जाता हो सो बात यथार्थ नहीं है। यह तो एक प्रकार की अविशिष्ट प्रतिक्रिया ( nonspecific reaction ) है जो मस्तिष्क की कई विकृतियों में देखी जाती है जैसे धूसर द्रव्यपाक, सर्वांगघात, प्रमस्तिष्कीय फिरङ्ग, जल संत्रास (आलर्क), सुषुप्तिरोग ( sleeping sickness ), यक्ष्मिक मस्तिष्कछदपाक, ताण्डवज्वर ( chorea) तथा मस्तिष्कविद्रधि के समीप । अथवा इसका मस्तिष्क पाक में उपस्थित रहना भी नितान्त आवश्यक नहीं है। इन कोशाओं में मुख्यतः लघु लसीकोशा होते हैं पर कुछ प्ररस कोशा तथा एकन्यष्टिकोशा भी मिलते हैं। केवल एक ही रुग्ण में बहुन्यष्टिकोशा बायड को देखने को मिले थे। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि यह रोग निस्सन्देह अपूय व्रणशोथ का ही एक रूप है। ये कोशा रक्तधारा से ही प्राप्त होते हैं ।
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