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ज्वर
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चक्रपाणिदत्त का कथन है कि प्रायः शब्द आचार्य ने इसलिए लिखा है कि यह ज्वर रक्ताश्रित तो होता ही है अंसाश्रित भी हो सकता है। अथवा अन्य धातुओं में भी आश्रित रह सकता है। जब दोषानुगुण काल होता है तब ज्वरोत्पत्ति या ज्वर का वेग हो जाता है और दोषानुगुणव्यतिरिक्त काल होता है तो ज्वर का क्षय हो जाता है। वह लिखता है कि ज्वरस्य (ज्वर के) कालप्रकृतिदूष्याणां (कालप्रकृतिदूष्यों के) मध्ये ( बीच में) अन्यतमाद् बलप्राप्तौ (अन्यतम बल की प्राप्ति से ) सत्यमपि ( सत्य भी) दोषसम्प्राप्तिमहिना ( दोषसम्प्राप्ति की महत्ता होने पर भी) हि (निश्चय पूर्वक) कालः प्रधान इति नियमो ज्ञेयः (काल की प्रधानता होती है यह नियम जान लेना चाहिए।) अर्थात् दोष ज्वर को उत्पन्न करने में काल के अनुसार ही चलते हैं उसके प्रतिकूल नहीं।। __ रक्ताश्रितवातोल्बण सततज्वर, पित्तोल्बण सततज्वर या कफोल्बण सततज्वर अपने-अपने प्रकोप काल में वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा अन्य काल में क्षय को प्राप्त होते हैं । पित्त मध्याह्न या मध्यरात्रि में, वात सन्ध्या या रात्रि के अन्तिम प्रहर में और कफ प्रभात में या पूर्व रात्रि में अधिक बलवान होते हैं। इस प्रकार दिन रात्रि में दो बार इसका वेग बढ़ कर सततज्वर चढ़ सकता है। कभी-कभी जब रात्रि में दो बार या दिन में दो बार ज्वर चढ़ता है तब एक के स्थान पर दो दोषों की अधिकता मानी जा सकती है। ___ सततज्वर विसर्गी ( intermittent ) है । यह चौबीस घण्टों में केवल दो बार चढ़ता उतरता है।
अन्येशुष्कज्वर अन्येशुष्कं ज्वरं कुर्य्यादपि संश्रित्य शोणितम् । अन्येशुष्कं ज्वरं दोषो रुद्धा मैदोवहा सिराः॥ सप्रत्यनीकं जनयत्येककालमहर्निशम् । अन्येशुष्कस्त्वहोरात्र एककालं प्रवर्तते ॥
काल प्रकृति और दूष्यों से अन्यतम बल प्राप्त करके सतत ज्वर जहाँ दो बार चढ़ता है वहाँ इस अन्यतम बल की उपलब्धि न होने के कारण रक्ताश्रयी होने पर भी अन्येधुष्कज्वर दिन रात में केवल एक बार ही चढ़ा करता है। अन्येशुष्क-ज्वरकारी वातादि दोष मेदोवह स्रोतसों में गमन करते हुए रक्ताश्रयी अथवा मांसाश्रयी होकर अल्पबल को प्राप्त करने के कारण तथा संतत ज्वर की अपेक्षा निर्बल होने से २४ घण्टों में केवल एक ही बार ज्वरोत्पत्ति करते हैं । मेदोवह स्रोतों से मांसवह स्रोतों में बल की अल्पता के कारण वह दिन में एक बार या रात्रि में एक बार ही आता है। ____ अन्येयष्क ज्वर में मेदोवह नाडियों का वातादि दोर्षों द्वारा रोध होने के कारण मेदोदुष्टि हो जाती है। क्योंकि--तेषां स्रोतसां रोधात् स्थानस्थाश्चैवं मार्गगाश्च दोषाः प्रकोपमापद्यन्ते । अर्थात् जब किसी स्रोतस का अवरोध हो जाता है तो उस स्थान पर स्थित और मार्ग में गमन करने वाले सभी दोषों का प्रकोप होने लगता है तथा-स्रोतो. दुष्टया धातुदुष्टिरवगन्तव्या के अनुसार जब मेदवाही स्रोतसों की दुष्टि हुई तो मेदोधातु भी दुष्ट हो जाता है और ज्वरोष्मा मेद का नाश करने लगती है यदि मलपाक न
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