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विकृतिविज्ञान
करना नितान्त हानिप्रद होता है। ज्वर का पुनरावर्तन ( relapse of fever ) का कारण आधुनिक लोग रोग के जीवाणुओं का पूर्णतः नाश न होना मानते हैं । यदि वे हमारे ऊपर के कथन की ओर ध्यान दें तो उसमें और उनकी बात में कोई भी अन्तर नहीं मिलेगा । हम कहते हैं कि जबतक पूर्णतया वात, पित्त, कफ, रस, रक्त, मांस, मेदस्, अस्थि, मज्जा, शुक्र और मल तथा मूत्र की शुद्धि नहीं होगी सन्ततज्वर न जावेगा अल्पशुद्धि या अपूर्ण शुद्धि रोग के पुनराक्रमण के लिए निमन्त्रण है । इससे afas a far कहते हैं । हमने सन्ततज्वरकारी किसी जीवाणु का नामकरणमात्र नहीं किया । के जो शुद्धि करके शरीर को जीवाणु - विरहित करना चाहते हैं वह तो हम भी चाहते क्या करते ही हैं । द्वादशाश्रयों की शुद्धि । किससे ? संततज्वर से । ज्वरोष्मा से । यह ऊष्मा किन कारणों से बनती है ? मिथ्याहार विहार के कारक कोई निज ही कारण हैं या आगन्तु भी आगन्तु सदैव निर्जीव पदार्थ ही होते हैं या जीवधारी भी । अधिक गहराई में जाने पर दोनों पूर्व के चिकित्सक और पश्चिम के विकृतिवेत्ता एक ही स्थल पर पहुँचते हैं ।
ऊपर जो बारहवें दिन ज्वर का विसर्ग बतलाया है वह वातानुबन्धि में सातवें और पित्तानुबन्धि में दसवें दिन भी हो सकता है तथा इनके दूने दिन भी लग सकते हैं। तथा अपूर्ण शुद्धि के कारण सन्तत ७, १० या १२ वें दिन के उपरान्त दीर्घकालानुaf ही कहा जाता है ।
सन्ततज्वर और अपतर्पण
ऊपर कही हुई द्वादशाश्रय की शुद्धि और अशुद्धि का ठीक ठीक विचार करके ही वैद्य को योग्य उपचार में प्रवृत्त होना चाहिए । आरम्भ में अपतर्पण अर्थात् लंघन का आश्रय करके चलने के लिए चरक का आदेश है । यह विषय अपने विषय से इतर होने से और प्रकरण भिन्नता के कारण हम केवल इङ्गितमात्र करके छोड़े देते हैं ।
सततज्वर
रक्तधात्वाश्रयः प्रायोः दोषः सततकं ज्वरम् । सप्रत्यनीकं कुरुते कालवृद्धिक्षयात्मकः ॥ अहोरात्रे सततको द्वौ कालावनुवर्त्तते । कालप्रकृतिदूष्याणां प्राप्यैवान्यतमाद् बलम् ॥
खरनाद ने सन्तत को छोड़ शेष चारों को विषमज्वर' माना है । अतः चरक और सुश्रुत क्या खरनाद के मत में भी सततज्वर विषमसंज्ञक ज्वर है ।
प्रायः करके वात, पित्त और कफ नामक तीनों दोष सततज्वर में रक्तधातु का आश्रय करके रहते हैं । और काल के अनुसार वृद्धि अथवा क्षय को प्राप्त होते हैं । अविरोधी काल होने पर ज्वर का वेग होता है और विरोधी काल पाकर वह वेग शान्त हो जाता है। दिन और रात्रि में सततज्वर दो बार चढ़ता है । काल, प्रकृति अथवा दूष्य किसी एक से या दोनों या तीनों से बल पाकर उसका वेग होता है जब उस बल का विरोधी काल, प्रकृति या दूव्य आ जाता है तो वह शान्त हो जाता है ।
१. ज्वराः पञ्च मयो का ये पूर्व सन्ततकादयः । चत्वारः सन्ततं हित्वा ज्ञेयास्ते विषमज्वराः ॥
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