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विकृतिविज्ञान उनका स्वाभाविक व्यापार है रोग नहीं है । मधुमेह में इस क्रिया के समाप्त हो जाने से ही स्नेहचयापचय (fat metabolism) गड़बड़ा जाता है और रक्त में स्नेह की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है। उसे कम करने की दृष्टि से प्लीहाभिवृद्धि होती है। जिसे गौचर (Gaucher ) या नीमैनपिक (Nieman Pick) की प्लीहाभिवृद्धि कहा जाता है।
___ इ-विमेदाभीय विह्रास (Lipoidal Degeneration)
स्नैहिक विहास से पीडित रोगियों के स्नेह में जब पैत्तव उसके लवण, विमेदाभ, मेदसाम्ल, स्वफेन ( soaps ) आदि बहुत अधिक मात्रा में मिले रहते हैं तो वह विमेदाभीय विहास के सूचक होते हैं। अनुतीव्र वृक्कपाक में यह अपजनन विमेदाभ वृक्कोत्कर्ष ( lipoid nephrosis ) के नाम से मिलता है। अत्यधिक शोथ और अत्यन्त वितिमेह ( albuminuria) इस रोग में पाये जाते हैं। वृक्क का वर्ण पूर्णतः श्वेत हो जाता है इसे विमजिवृक्क ( myelin kidney ) के नाम से पुकारा जाता है। यह वास्तव में विहास नहीं है बल्कि स्नैहिक भरमार का द्योतक है। इसमें परमपैत्तवरक्तता ( hyper-cholesteraemia) होती है।
मधुजनीय अन्तराभरण (Glycogen Infiltration) स्वभावतः मधुजन का सञ्चय यकृत् या पेशियों में मिलता है। परन्तु जब विकृति की दृष्टि में विचार करते हैं तो नव वृद्धियों या अर्बुदों के कोशाओं में, सशोथ ऊतियों ( inflammed tissues ) में, सपूयशोथ ( suppurativei nflamma. tion ) में, सितकोशाओं के भीतर (इसे जम्बुकी द्वारा अभिरक्षित करने से ही देखा जाता है) एवं मधुमेह में मधुवशि की कमी से इसकी मात्रा बढ़ी हुई पाई जाती है। किसी भी स्थान के कोशाओं में मधुजन की उपस्थिति इस बात की निदर्शिका है कि वहाँ का प्राङ्गोदेयिक चयापचय ( carbohydrate metabolism) अधिक बढ़ा हुआ है यद्यपि कोशाओं में शर्करा का परिमाण स्वाभाविक से अधिक है। ___फानगीर्क रोग ( Van Gierke disease)-सन् १९२९ ई० में फानगीर्क नामक विद्वान् ने एक शिशुरोग का वर्णन किया जिसमें शिशु-यकृत् कठिन एवं अत्यधिक प्रवृद्ध हो गया था क्योंकि उसके कोशाओं में मधुजन की भरमार थी। वृक्कों में भी वैसा ही मिला । किसी किसी रुग्ण में तो हृत्पेशी की वृद्धि का भी यही कारण होता है। यह रोग उत्तरोत्तर वृद्धि करता है । रक्त की शर्करा की मात्रा घट जाती है मूत्र में शौक्ता (एसीटोन) तो मिलता है पर शर्करा नहीं मिलती। यह शिशुरोग सहज (conge. nital) मालूम पड़ता है। इसका मूल कारण मधुजन को मधुम में परिवर्तन करने की अशक्यता ज्ञात होती है। इस परिवर्तन को कर सकने की क्षमता उपवृक्की (adrenaline ) में होती है। उपवृक्की का उत्पादन कार्य पोषप्रन्थि के उपवृक्क्यावर्तिक न्यासर्ग ( adrenotropic hormone of the pituitary )
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