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विकृतिविज्ञान है। कहीं कहीं पुनर्जनन के समय ऊतिविशेष थोड़ी सी और थोड़ी तान्तव ऊति ये दोनों बनने लगती हैं वह भी पूर्व क्रियाशक्ति को कम करती हैं। ___ शरीर की विभिन्न ऊतियों का विचार करने पर हम यकृत् की ओर ध्यान दें तो ज्ञात होगा कि इसका विशिष्ट कार्य होने पर भी इसमें पुनर्जनन की अद्भुत शक्ति व्याप्त है। हिग्गिन्स और एण्डरसन ने कुछ मूषकों के यकृत् का ७० प्रतिशत भाग काट कर फेंक दिया पर पन्द्रह दिन के बाद उन्होंने देखा कि यकृत् का पुनर्जनन हो गया है और उसने अपनी पूर्वाकृति प्राप्त कर ली है। मनुष्य में भी यकृत् के विशिष्ट कोशाओं में पुनर्जनन देखा जाता है। यदि क्षति या आघात थोड़ा हुआ तब तो यकृत् के विशिष्ट कोशा ज्यों के त्यों पुनरुत्पन्न हो जाते हैं जैसा कि यकृत् की ऊति के नाभ्य नाश ( focal necrosis) में देखा जाता है। पर यदि अधिक भाग क्षतिग्रस्त हुआ जैसा कि तीव्र वैषिक यकृत्पाक ( acute toxic hepatitis) में देखने को मिलता है तो वहाँ तन्तूत्कर्ष देखा जाता है यद्यपि बीच-बीच में स्वस्थ यकृतकोशापुंजों के द्वीप इतस्ततः मिल जाते हैं । वातनाड़ियाँ परम विशिष्ट प्रकार के कोशाओं से बनी होने के कारण उनमें पुनर्जनन होता नहीं परन्तु यदि वातकोशा का अक्षरम्भ भग्न हो जावे और शेष भाग ज्यों का त्यों रहे तो उसका पुनर्जनन हो जाता है। अधिच्छदीय रचनाओं में त्वचा में पुनर्जनन की अपरिमित शक्ति है उतनी श्लेष्मलकलाओं में नहीं है। संयोजी ऊतियों में तान्तवसंयोजी ऊति, अस्थि, तरुणास्थि (कास्थि ), रक्तवाहिनियाँ तथा केन्द्रिय वातनाडी संस्थान की वातश्लेष नामक ऊति में पुनर्जनन की पर्याप्त शक्ति पाई जाती है। पेशियाँ अनैच्छिक हों या ऐच्छिक कठिनतापूर्वक पुनरुत्पन्न होती हैं। प्रणालीविहीन ग्रन्थियों में केवल अवटुकाग्रन्थि को छोड़कर जिसमें पर्याप्त परमचय देखा जाता है अन्यों में पुनर्जनन नहीं देखा जाता । अन्तर्वर्ती ( transitional ) तथा शल्कीय (squamous) अधिच्छदों की पुनरुत्पत्ति सरलतापूर्वक हो जाती है इसी कारण वृक्कों के नालिकीय अधिच्छद का पुनर्जनन सुखपूर्वक होता हुआ देखने को मिलता है।
यह सदैव स्मरण रखना होगा कि पुनर्जनन के लिए अत्यन्त आवश्यक पदार्थ रक्त है। यदि क्षतिग्रस्त अङ्ग की रक्तपूर्ति ठीक ठीक होती रहेगी तो उस ऊति का स्वाभाविक स्वरूप बन सकेगा पर यदि रक्त की कमी होगी तो खेत में गेहूं न उग कर घास उगेगी अर्थात् तान्तव ऊति बनेगी। यही कारण है कि छोटी छोटी क्षतियों में ऊति का पुनर्जनन ठीक ठीक होता है पर बड़े आघातों में रक्त की ठीक ठीक पूर्ति न होने से तन्तूत्कर्ष देखा जाता है।
उपशमन द्वारा रोपण-यह रोपण का वह प्रकार है जिसमें क्षतिग्रस्त अङ्ग की स्वाभाविक क्रियाशक्ति यथापूर्व बनी रहती है। यह तभी होता है जब ऊति में अत्यल्प क्षति हो । उपशमन ( resolution ) का सर्वोत्तम उदाहरण फुफ्फुस गोलाण्विक श्वसनक ( pneumococcal pneumonia) है। इस रोग में फुफ्फुस का एक या एकाधिक खण्ड वायुकोषों में स्रावों के आतञ्चन से जम कर एक सघन पिण्ड
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