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विकृतिविज्ञान
वात ज्वर, वसन्त ऋतु में पित्त ज्वर और वर्षा ऋतु में श्लेष्मज्वर आदि । निदान में जो ज्वरकारी विविध हेतु दिये गये हैं जिनके कारण चाहे जिस ऋतु में किसी भी नियम का विना पालन किए हुए जो ज्वर हो जाता है वह सभी वैकृत उवर की सीमा में जाता है।
अब गंगाधर ने प्राकृत और वैकृत ज्वरों के सम्बन्ध में स्वयं शङ्का उठा कर उसका अच्छा समाधान कर दिया है ।
कालप्रकृतिमुद्दिश्य निर्दिष्टः प्राकृतो ज्वरः ।
यह सम्पूर्ण समाधानों की कुञ्जी है । काल के स्वभाव से सम्बन्धित दोषों की हेतुकता का लक्ष्य करके ही प्राकृतज्वर बतलाया गया है । प्राकृत ज्वर के सम्बन्ध में
अत्र तु कालप्रकृत्या चयपूर्वका दोषप्रकोप जाता रोगाः प्राकृता न तु दोष कोपाज्जाता इति । काल प्रकृति के अनुसार चयपूर्वक दोषों के प्रकोप के कारण उत्पन्न रोग प्राकृत कहलाते हैं । केवल मद्य दोष के कोप से उत्पन्न ज्वर प्राकृत नहीं । पहले हम पित्त को लेते हैं । इसका चय वर्षा ऋतु में होता है शरत्काल में प्रकोप होता है और शीतकाल में प्रशमन हो जाता है । अतः पित्त ज्वर का प्राकृतिक काल शरत्काल हुआ । कफ का शीतकाल में संचय होता है, वसन्त में प्रकोप होता है और ग्रीष्म काल में प्रशमन हो जाता है अतः कफ ज्वर का प्राकृतिक काल वसन्त ऋतु है । इसी प्रकार वायु का ग्रीष्म में सचय होता है, फिर उसका प्रावृट् में प्रकोप हो जाता है तथा वर्षा में प्रशमन हो जाता है | अतः वातज ज्वर का प्राकृतिक काल प्रावृट् या पावस ऋतु होता है । फिर दूसरा एक चक्र और चलता है जिसमें पित्त का संचय काल वसन्त ऋतु हो कर ग्रीष्म में प्रकोप और प्रावृट् में प्रशमन होता है । इस अवस्था में ग्रीष्म पित्तज ज्वर का प्राकृतिक काल बन जाती है । कफ का संचय प्रावृट् में और प्रकोप वर्षा में तथा शमन शरद् में होता है यहाँ वर्षा काल ज्वर के लिए प्राकृतिक होती है । इसी प्रकार वायु का शरद में संचय और शीत में प्रकोप और वसन्त में प्रशमन हो जाता है इस दृष्टि से वातज ज्वर के लिए शीतकाल प्राकृतिक काल बन जाता है । अतः किसी भी दोष का जब विधिवत् संचय होकर फिर ठीक काल पर प्रकोपक कारणों की उपस्थिति में प्रकोप होता है तो यह अवस्था एक विशेष नियम के अनुसार हुई यही प्राकृत ज्वर है । जब नियमों की कोई भी श्रृंखला बेकार हो जाती है तब जो ज्वर होता है वह वैकृतज्वर कहलाता है । अन्य कालों को प्रदर्शित करते हुए जल्पकल्पतरु टीकाकार लिखते हैं
ते ह्यन्येषु शरवसन्तप्रावृट् भिन्नेषु पञ्चस्वृतुसु हेमन्तवसन्तग्रीष्मप्रावृवर्षासु स्वकारणकुपितात् पित्ताज्जाताः, ग्रीष्मप्रावृट्वर्षाशरद्धेमन्तेषु तु स्वहेतुकोपात् कफाज्जाताः, वर्षाशरद्धेमन्तवसन्तग्रीष्मेषु स्वनिदानकुपिताद् वाताज्जाताश्च रोगा वैकृताः ते च दुःखाः प्रायेण भवन्ति । हेतव इत्यादि । यहाँ मूल प्राकृत ज्वर तीन ही मान कर चले हैं अर्थात् शरद् ऋतु में पित्तज्वर, वसन्त ऋतु में कफ ज्वर तथा प्रावृट् ऋतु में वात ज्वर । पित्तज्वर शरद् ऋतु के अतिरिक्त अन्य पाँचों ऋतुओं में जब भी होगा वह वैकृत ज्वर कहलावेगा । अतः हेमन्त, वसन्त,
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