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ज्वर
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सन्ततज्वर की उत्पत्ति सन्तत एक निरन्तर रहने वाला विषम ज्वर है। यह ७ दिन, १० दिन या १२ दिन लगातार रहता है। इसके अविसर्गी स्वभाव को देख कर बहुत से वैद्य इसे आन्त्रिक ज्वर या दोषी ज्वर मान कर चिकित्सा करने लगते हैं । अतः इसके अविसर्गी स्वभाव की ओर सदैव ध्यान रखने की आवश्यकता पग पग पर पड़ती है। यह जब चढ़ता है तो लगातार ७, १० या १२ दिन पर्यन्त आता ही रहता है उतरता नहीं है।
इसकी उत्पत्ति को चरक में बहुत संक्षेप में और योग्यतापूर्वक प्रतिपादित किया गया है
स्रोतोभिर्विसृता दोषा गुरवो रसवाहिमिः । सर्वत्रानुगास्तब्धा ज्वरं कुर्वन्ति सन्ततम् ।। गुरु यानी साम वात, पित्त और कफ दोष रसवाहक स्रोतों में फैल कर सम्पूर्ण शरीर में अनुगमन करते हुए सम्पूर्ण शरीर में ही रुक जाते हैं या स्तब्ध हो जाते हैं और सन्तत ज्वर को उत्पन्न कर देते हैं। पहले आमाशय में स्थित हुए दोष जो पर्याप्त मिथ्याहार विहार के द्वारा गुरु या साम बन गये हैं रसवाही नालियों में जाते हैं । ये नालियाँ उन्हें समस्त शरीर में पहुंचा देती हैं अर्थात् सम्पूर्ण शरीर इन रक्त और दूषित दोषों के कारण सन्तृप्त हो जाता है । यह सन्तृप्तावस्था तुरत समाप्त नहीं होती अपि तु वह एक सप्ताह तक यदि वात दोष ही मुख्यतया साम होकर प्रवाहित हो रहा हो, अथवा दस दिन तक जब पित्त का प्राबल्य हो अथवा बारह दिन तक जब कि कफधर्म का अधिकार विशेष रूप से हो शरीर पूर्णतः दोषपूर्ण और साम दोषों से सन्तृप्त बना रहता है और यह जो अविसर्गी स्वरूप का चौबीसों घण्टे एक सा बना रहने वाला ज्वर हो जाता है यही सन्तत ज्वर कहलाता है। इसके बारे में ज्ञातव्य यह है कि
अ-यह अविसर्गी है। आ-इसके लिए कारण भूत द्रव्य स्वयं वातादि तीन दोष हैं। इ-यह रसवह स्रोतों द्वारा गमन करता है। ई-यह सम्पूर्ण शरीर में पहुँचता है और उ-ज्वरकारी तत्व सम्पूर्ण शरीर में फैला रहता है।
सन्ततज्वर की मर्यादा सन्ततज्वर व्यक्ति को ७ दिन, १० दिन या १२ दिन में या तो मार देता है या छोड़ ही देता है । इसकी व्याख्या करते हुए गंगाधर कविराज लिखता है
स कालध्यप्रकृतितुल्यदोषजः सन्ततो ज्वरः दोषदुष्याणां निःशेषेण संशोधनाभावात संशोधनाच्च दशाहं, सर्वशः संशोधनात् तथा संशोधनाभावाद् द्वादशाहं, सर्वशः संशोधनात् संशोधनाभावाच्च सप्ताहं वाप्य सुदुःसहः शीघ्रकारित्वात् शीघ्रं प्रशमं याति हन्ति वा। वा द्वयव्यवस्थया पित्ताधिको यो भवति स दशाहं व्याप्य श्लेष्माधिको यो भवति स द्वादशाहं व्याप्य वाताधिको यो भवति स सप्ताह व्याप्य सुदुःसहः शीघ्रकारित्वात् शीघ्र प्रशमं याति शीघ्रं हन्ति वेति ।।
सन्तत ज्वर का काल, दृष्य और प्रकृति तुल्य दोषज होने से दोष दूष्यों के सम्पूर्णतया संशोधन से या असंशोधन से पैत्तिकावस्थाधिक्य १० दिन में, श्लैष्मिकाधिक्य
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