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ज्वर
३२३ तीक्ष्ण अत्युग्र वेग वाले ज्वरी में प्रलाप, भ्रम और श्वास, प्रश्वास, गति, तीचा होती चली जावे तो वह मनुष्य अवश्य ही मर जाता है । मरने के दिन भी बतलाये गये हैं कि वातिक एक सप्ताह में, पैत्तिक दश दिनों में तथा श्लैष्मिक कारण बारह दिनों में मार देता है। वायु शीघ्रकारी होने से जल्दी पित्त पर शीघ्रकारी होने से कुछ विलम्ब से तथा कफ चिरकारी होने से सबसे अधिक समय लेकर नारता है।'
रोगी का बल तीण हो गया हो और वह सूज गया हो, घर दीर्घकालीन और गम्भीर हो तो वह असाध्य होता है। इसी प्रकार जिस घर में स्वतः ही बालों की माँग बन जाती है वह भी असाध्य होता है । सुश्रुत ने इस सम्बन्ध में लिखा है
हतप्रभेन्द्रियं क्षामं दुरात्मानमुपद्रुतम् । गम्भीरतीक्ष्णवेगात ज्वरितं परिवजयेत् ॥ स्था--केशाःसीमन्तिनो यस्य संक्षिप्ते विनते ध्रुवौ । लुनन्ति चाक्षि पक्ष्माणि सोऽचिरात् याति मृत्यवे।।
ऊपर ज्वर की संख्या सम्प्राप्ति की दृष्टि से २-२ करके जितने भी ज्वर के चरकोक्त भेद कह दिये हैं उन्हें हम उपस्थित किया है अब आगे और भी जो भेद हैं उन्हें प्रगट किया जाता है।
पञ्चविध ज्वर पुनः पञ्चविधो दृष्टो दोषकालबलाबलात् । सन्ततः सततो न्येद्युस्तृतीयकचतुर्थको ।
द्विविध ज्वरों के पश्चात् पुनः पांच प्रकार के ज्वर देखे जाते हैं जो दोष के बल और काल के बल से अथवा दोषावल और कालाबल से उत्पन्न होते हैं। वे १. सन्तत २. सतत ३. अन्येशुष्क ४. तृतीयक और चतुर्थक कहे जाते हैं ।
ये पाँचों ज्वर त्रिदोषात्मक कहे गये हैंज्वरः पञ्चविधो प्रोक्तो मलकालबलावलात् । प्रायः स सन्निपातेन भूयसा त्वपदिश्यते ॥
सन्ततः सततोऽन्येद्यस्ततीयकचतुर्थको ।। एक ही ज्वर मलों की दृष्टि से अर्थात् वातपित्तकफ के बलवान् या बलरहित होने से पाँच प्रकार का कहा जाता है। यहाँ मल शब्द दोषबाची है। तथा ज्वर का कारण दोषकोप के साथ-साथ काल का भी सम्बन्ध जुड़े वहाँ पाँच प्रकार का बतलाया जाता है। ये पाँचों प्रायः सन्निपात द्वारा अर्थात् त्रिदोष द्वारा ही होते हैं। इनके नाम सन्तत सतत अन्येशुष्क तृतीयक और चातुर्थक हैं।
ये पाँचों सुश्रुत ने विषमज्वर के नाम से पुकारे हैंदोषोऽल्पोऽहितसम्भूतो ज्वरो सृष्टस्य वा पुनः । धातुमन्यतमं प्राप्य करोति विषमज्वरम् ॥
अहितकारी पदार्थों के सेवन से उबरमुक्त व्यक्ति को रसरक्तादि धातुओं में से किसी एक को दोष प्राप्त करके विषम ज्वरोत्पत्ति करते हैं। विषमज्वर की निरुक्ति भालुकि निम्न शब्दों में करता है
५. इसी विषय पर चक्रपाणिदत्त ने २ श्लोक और दिये हैंपित्तकफानिलवृद्धथा दशदिवसद्वादशाहसप्ताहात् । हन्ति विमुञ्चति वाशु ज्वरोष्माधातुमलपाकात् ॥ तथा-दशद्वादशसप्ताहैः पित्तश्लेष्मानिलाधिकः । दग्धोष्मणा धातुमलान् हन्ति मुञ्चति वा ज्वरः॥
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