________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
३१८
विकृतिविज्ञान
बहिर्वेग ज्वर में बाह्य सन्ताप अत्यधिक होता हैं । प्यास, भ्रम, श्वासवेग, प्रलाप, सन्धिशूल आदि लक्षण जो पहले अन्तर्वेग में बतलाये हैं वे यहाँ सौम्य वा मृदु रूप में होते हैं। देखने में ज्वर की तीव्रता होने के कारण रोग गम्भीर जान पड़ता है पर यथार्थतः यह सुखपूर्वक सिद्ध होने वाला रोग है ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बहिर्वैग में बाह्य भाग अधिक उष्ण और अन्तर्वेग में शरीर का अन्तर भाग अधिक उष्ण होता है । बाह्य भाग या परिणाह ( peripheral part ) में तापाधिक्य कुछ काल रह कर धीरे धीरे विलीन हो जाता है । यहाँ प्रलापादि गम्भीर या मारक लक्षण नहीं पाये जाते । अन्तर्वेग में शरीर के अन्दर स्थित अंग (visceral parts ) अधिक तप्त हो जाता है । मार्गों के अवरोध और स्वेद के न निकलने से प्राणी अन्दर ही अन्दर घुटता है जिससे उसे भयानक दाह और भीषण प्यास के साथ साथ श्वास वेग की वृद्धि और बकवास सूझता है । ऐसा रोगी बहुत कम बचता हुआ आज कल देखा गया है । शरीर का भीतरी भाग जीवन के लिए परमावश्यक अंगोपाङ्गों से युक्त है उस पर ज्वर का विशिष्ट प्रहार सदैव गम्भीर परिणामकारी हो सकता है । बाह्य भाग तो आन्तर शरीर की रक्षा के ही निमित्त होने से ज्वर के झटके को झेल लेता है और रोगी बच जाता है । आधुनिक इन भेदों को नहीं मानते और उनका शरीर व्यापार विकृति दर्शक शास्त्र इसके लिए कोई उपयुक्त कारण भी नहीं दे पाता पर यथार्थता यह है कि ऐसे रोगी जिन्हें अन्तर्वेग ज्वर हो या बहिर्वेग बहुधा पाये जाते हैं इनकी कमी नहीं है।
( ६ ) प्रकृति विकृति भेद से भी ज्वर २ प्रकार का कहा जाता है: आ- - वैकृतज्वर चक्रपाणिदत्त ने प्राकृत ज्वर की व्याख्या करते हुए लिखा है:
अप्राकृत ज्वर
-
तत्र कालस्वभावप्रकुपितदोषः प्रकृतिरुच्यते, तज्जातीयाच्च दोपाद्भूतो ज्वरः प्राकृत उच्यते । काल के स्वभाव के अनुसार दोषों का जो प्रकोप है उसे यहाँ प्रकृति माना जाना चाहिए इस प्रकृति के कारण कुपित दोषज ज्वर जितने भी होंगे वे सभी प्राकृत ज्वर की कोटि में आवेंगे
प्राकृतः सुखसाध्यस्तु वसन्तशरदुद्भवः । कालप्रकृतिमुद्दिश्य प्रोच्यते प्राकृतो ज्वरः ॥ वसन्त ऋतु में कफ के प्रकोप का प्राकृतिक समय होने से वसन्त में उत्पन्न कफ ज्वर प्राकृत ज्वर है । वर्षा ऋतु में उत्पन्न वात ज्वर भी वात के प्राकृतिक प्रकोपक काल
उत्पन्न होने से प्राकृत ज्वर होता है । इसी प्रकार प्रकृति के नियम के अनुसार शरद ऋतु में पित्त का प्रकोप होता है और उसके कारण उत्पन्न पित्तज्वर भी प्राकृत ज्वर कहा जाता है । इन प्राकृत ज्वरों में वसन्त का कफ ज्वर और शरद् का पित्त ज्वर सुख साध्य होता है । और वर्षा कालीन वात ज्वर कष्ट साध्य होता है ।
।
कैसे होता है ? इसकी भी एक जिसका विस्तृत वर्णन सुश्रुत
प्राकृत ज्वर कैसे उत्पन्न होते हैं और दोषों का संचय, प्रसर और प्रकोप क्या और नितान्त लाभप्रद शतप्रतिशत वैज्ञानिक एक कथा है सूत्रस्थान के २१ वें अध्याय में तथा अष्टांगहृदय सूत्र
For Private and Personal Use Only