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ज्वर
शारीरो जायते पूर्वं देहे मनसि मानसः । वैचित्यमरतिग्लानिर्मनसस्तापलक्षणम् ।।
इन्द्रियाणां च वैकृत्यं देहे सन्तापलक्षणम् ।। मानसज्वर में विचित्तता, अरति और ग्लानि ये ३ लक्षण मुख्य रूप में प्रगट होते हैं और शारीरज्वर में इन्द्रियों की विकृति प्रधान रूप से पाई जाती है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि आयुर्वेद ने समनस्क शरीर को ही ज्वर का अधिष्ठान माना है। ज्वर मन और शरीर दोनों को ही व्यथित करता है। पर मन पहले व्यथित हुआ तो मानस और शरीर पहले व्यथित हुआ तो शारीरज्वर कहा जावेगा। (४) सौम्य और आग्नेय भेद से भी ज्वर २ प्रकार का कहा जाता है। अ-सौम्यज्वर
आ-आग्नेयज्वर वातिक और श्लैष्मिक ज्वर सौम्य हैं । वातश्लैष्मिक ज्वर भी सौम्य है। पैत्तिक ज्वर और वातपैत्तिकज्वर आमेय हैं। सान्निपातिक ज्वर तथा पित्तकफात्मक ज्वर ये दोनों शीतोष्ण या सौम्याग्नेयगुणभूयिष्ठ माने जाते हैं। यथार्थ में तो सौम्यज्वर, आग्नेयज्वर और सौम्याग्नेयज्वर करके तीन प्रकार बनते हैं परन्तु चूंकि सौम्याग्नेय रूप में भी सोम या अग्नितत्व की थोड़ी बहुत कमी बेशी होने के कारण उसे उपरोक्त दो में से ही किसी एक में लिया जा सकता है तथा सौम्य और आग्नेय व्यतिरिक्त अन्य कोई भाव भी उदित नहीं होने से ये दो प्रकार ही मान्य हैं। चिकित्सा और द्रव्यगुण की दृष्टि से इनका बहुत महत्त्व है। इनके साथ ही पाठक को अभिप्रायात्मक भेद को भी पुनः स्मरण कर दोनों का साम्य मालूम करके विषय का ठीक ठीक प्रतिपादन कर लेना चाहिए।
(५) वेगों की दृष्टि से भी ज्वरों के दो भेद हैं:१. अन्तर्वेगज्वर
२. बहिर्वेगज्वर अन्तर्दाहोऽधिकस्तृष्णा प्रलापः श्वसनं भ्रमः । सन्ध्यस्थिशलमस्वेदो दोषवर्ची विनिग्रहः ।।
___अन्तर्वेगस्य लिङ्गानि ज्वरस्यैतानि लक्षयेत् ।। । अन्तर्वेगज्वर में अन्तर्दाह और प्यास की अधिकता होती है रोगी प्रलाप करता है श्वास की गति बढ़ जाती है उसे भ्रम हो जाता है अस्थि सन्धियों में शूल, प्रस्वेद का न निकलना और वातपित्त श्लेष्मा ये दोष तथा मल का रुक जाना नामक लक्षण पाये जाते हैं । ये लक्षण स्पष्टतः प्रगट करते हैं कि ज्वर का वेग शरीर के अन्दर अधिक है। यही नहीं रोगी के हाथ पैर ठण्डे मालूम पड़ते हैं यह लगता है कि रोगी को अधिक ज्वर नहीं है पर जब थर्मामीटर लगा कर देखते हैं तो उसे १०४ और १०५ तक ज्वर मिलता है। शरीर में भयानक दाह के साथ प्रलाप और श्वास की गति का बढ़ना ये सदैव गम्भीर लक्षण माने जाते हैं।
सन्तापोऽभ्यधिको बाह्यस्तृष्णादीनां च मार्दवम् । बहिर्वेगस्य लिङ्गानि सुखसाध्यत्वमेव च ॥ १. केवलं समनस्कं च ज्वराधिष्ठानमुच्यते शरीरम् । २. चक्रवद्धमतो गात्रं भूमौ पतति सर्वदा । भ्रमरोग इति शेयो रजः पित्तानिलात्मकः ॥
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