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विकृतिविज्ञान त्वादिलक्षणस्तथा चायं विषमारम्भविसर्गित्वादि लक्षणस्तस्माज्ज्वरोऽयं वातज इत्येवमसाधारणलक्षण सहचरितसव्यभिचारि लक्षणेनापि सामान्यतो विशेषतश्चानुमीयते । अर्थात् यह वातजज्वर है या पैत्तिक है या श्लैष्मिक है ऐसा कहना होता है।
द्विविध ज्वर (१) अभिप्रायविशेष से ज्वर के दो प्रकार बतलाये गये हैंअ-शीताभिप्रायज्वर-पित्तात्मक आ-उष्णाभिप्रायज्वर-वातात्मक तथा कफात्मक
शीताभिप्राय का अर्थ जिसमें रोगी शीतल पदार्थ खाने की इच्छा रखता है यह उष्णसमुत्थ अर्थात् पैत्तिक होता है। उष्णाभिप्राय जिसमें रोगी उप्णपदार्थ सेवन करने की इच्छा रखता है। ये वातिक और श्लैष्मिक दोनों प्रकार के ज्वरों में देखे जाते हैं क्योंकि वे दोनों शीतसमुत्थ होते हैं।
वायु स्वयं योगवाही होने के कारण पित्त के साथ मिलकर शीताभिप्राय और कफ के साथ मिलकर उप्णाभिप्राय ज्वर उत्पन्न कर सकती हैवातपित्तात्मकः शीतमुष्णं वातकफात्मकः । इच्छत्युभयमेतत् तु ज्वरो व्याभिश्रलक्षणः ।।
योगवाहः परं वायुः संयोगादुभयार्थकृत् । दाहकृत् तेजसा युक्तः शीतकृत् सोमसंश्रयात् ।। वायु की योगवाही शक्ति को यदि पाठक यहीं पहचान लेंगे तो वे आगे द्वन्द्वज विकारों में विविध रोग लक्षणों को जान पायेंगे और आयुर्वेदज्ञों ने द्वन्द्वज विकारों की जो चिकित्सा दी है उसके मूल तक पहुँचने की सामर्थ्य भी प्राप्त कर सकेंगे। (२) निजागन्तु भेद से भी ज्वर के २ प्रकार कहे गये हैंअ-निज ज्वर
आ-आगन्तु ज्वर निजज्वर शारीर दोषों में मिथ्याहार विहारादि के कारण उत्पन्न विकृति के कारण उत्पन्न होता है। इसका हेतु सब शरीर के अन्तर्भाग में ही निहित होता है । आगन्तु ज्वर सदैव बाह्मकारणों से उत्पन्न होता है। आधुनिक विचारकों ने जितने रोगाणु या जीवाणु ज्वरकारी गिनाए हैं उनके द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्वर इसी श्रेणी में आता है। निज और आगन्तु इन दो भेदों के अन्दर मनुष्य को होने वाले सभी प्रकार के ज्वरों का समावेश हो जाता है। (३) प्रकार भेद से भी ज्वर के २ भेद किए गये हैंअ-शारीरज्वर
आ-मानसज्वर शारीरज्वर शरीर में होता है और मानसज्वर भी शरीर में ही अधिष्ठित देखा जाता है। परन्तु ये दो प्रकार इस विभेद को व्यक्त करने के लिए हैं कि ज्वर ने पहले शरीर को ग्रसा या मन को उदाहरण के लिए शोक के कारण मन व्यथित हुआ और फिर ज्वर आ गया यह शोकजज्वर मानसज्वर कहा जावेगा। दूसरा उदाहण दण्डाभिघातजनित ज्वर का है। दण्ड का अभिघात शरीर पर हुआ और वात का प्रकोप होकर अभिघातज वातिक ज्वर बना यहाँ मन को कष्ट बाद में हुआ यह शारीर ज्वर है। इसे स्वयं भगवान् आत्रेय ने स्पष्ट कर दिया है
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