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ज्वर
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ज्वरोत्पत्ति के समय एक प्रकार का विष. शरीर के अंग प्रत्यंग में हलका-हलका दौड़ने लगता है जो शरीर में श्रम की स्थिति उत्पन्न कर दे सकता है।
आलस्य-आलस्य भी ज्वर का ही पूर्वरूप बतलाया गया है सुश्रुत ने उसका उल्लेख ज्वरपूर्वरूप में नहीं किया वाग्भट ने उसे लिखा है। पर सुश्रुत ने आलस्य की निम्न व्याख्या अवश्य दी है
सुखस्पर्श प्रसङ्गित्वं दुःखद्वेषणलोलता । शक्तस्य चाप्यनुत्साहः कर्मण्यालस्यमुच्यते ॥ सुखस्पर्श होने पर दुःख से द्वेष और शक्ति रहते हुए भी अनुत्साह का होना कर्म में आलस्य की परिभाषा होने पर भी यहाँ वाङ्मनःकायकर्मस्वनुद्यमः आलस्यम् । की परिभाषा ठीक बैठेगी बोलने की इच्छा नहीं, सोचने की तबियत नहीं, कार्य करना तो दूर यह अवस्था ज्वर के पूर्वरूप आलस्य में हुआ करती है। उसका कारण है शरीराङ्गों में श्रम की अभिव्याप्ति । श्रम कहने से आलस्य की और आलस्य कह देने से श्रम की प्राप्ति मानने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। आलस्य के साथ-साथ चरक ने दीर्घसूत्रता को भी ज्वर के पूर्व में होने वाला एक लक्षण स्वीकार किया है। __ अरति-ज्वर के पूर्वरूपों में एक अरति है। अरतिरनवस्थितचित्तत्वम् अथवा एकत्रानवस्थितिश्चेतस् के द्वारा समझी जा सकती है। चित्त का चलायमान रहना एक स्थली पर मन का स्थित न रहना अरति है। अरति एक मन की अवस्था विशेष है। मन्दगति से ज्वर व्यक्त होने से पूर्व बहने वाले शरीर में सञ्चित विर्षों की मस्तिष्क पर हुई विकृत क्रिया का मूर्तरूप ही अरति हो सकती है।
विवर्णता- इसे म्लानगात्रता भी कहते हैं । अर्थात् शरीर की कान्ति या वर्ण का फीका या मन्द पड़ जाना ज्वर के पूर्व का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। दोष विविध कारणों से दूषित और प्रकुपित होने लगते हैं जिसके कारण उनके परिणामस्वरूप विशिष्ट वर्ण का रोगी की त्वचा पर प्रादुर्भाव हो जाया करता है। चरक भी हानिश्च बलवर्णयोः के द्वारा वर्णहानि को स्वीकार करता है।
विरसता या आस्यवरस्य-वैरस्यमिति मुखस्य विरुद्धरसता। अर्थात् मुख के स्वाद का विकृत हो जाना विरसता कहलाता है । जिह्वा में स्थित आस्वादन संज्ञावह नाडियों के अग्रों में कोई विकार हो जाता है या आस्वादन केन्द्र में ही विकृति होती है इसका निर्णय करना है। वास्तविकता तो यह है कि ज्वर का पूर्वरूप जो श्रम वा आलस्य के साथ आरम्भ होता है उसी का स्पष्ट विवेचन यह लक्षण है। आस्वादन केन्द्र, आस्वादन वातनाडियाँ तथा उनके अग्रभाग सभी थकित और अलसित हो जाने के कारण उनके लिए निश्चित जो कार्य है उसकी पूर्ति यथावत् नहीं कर पाते और आस्यवैरस्य को जन्म देते हैं।
सास्राकुलाक्षिता या नयनप्लव-यह लक्षण ज्वर होने से कुछ ही पूर्व उत्पन्न होता है । इसके उपस्थित होने पर ३० मिनट से लेकर ४ घण्टे तक ज्वर अवश्यमेव उत्पन्न हो जाता है । सास्राकुलाक्षिता का अर्थ सहारेण वर्तेत इति साने आकुले अक्षिणी
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