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ज्वर
३१३ तम-नेत्रों के आगे अन्धकार होना या नेत्र खुले होने पर भी अँधेरे ही अँधेरे का अनुभव होना एक ऐसा लक्षण है जिसे सुश्रुत ने माना है। शल्यरोगीय ज्वरों में तम का होना अस्वाभाविक नहीं है। सर्वाङ्गशैथिल्य के कारण जहाँ जिह्वा अपनी रसग्राहकता को भूल सकती है वहाँ नेत्र अपनी पूरी शक्ति से कार्य कर सकें ऐसा भी सम्भव नहीं है।
अग्रहर्ष—इसका अर्थ है आनन्दाभाव । आनन्द का अभाव चेहरे पर प्रसन्नता के स्थान पर औदासीन्य आ जाना है। दुःखपूर्ण जीवन होने पर कातरता से युक्त आनन दिखलाई देता है। यह सार्वदैहिक अवसाद का प्रत्यक्ष परिणाम होता है। कोई भी ज्वरी प्रसन्नमुद्रा में तब तक देखा नहीं जा सकता जब तक वह योगी या पागल न हो।
शीत-ठण्ड लगना यह लक्षण शल्यजनित ज्वरों का, वातप्रधान ज्वरों का और विषमज्वर का प्रधान लक्षण है। ज्वर के पूर्व शीत की प्राप्ति इन्हीं में प्रायः मिला करती है। सर्वसामान्य ज्वर में सदैव शीत लगे यह आवश्यक नहीं है। बल की कमी चित्त की अनवस्थितता और अल्पप्राणता के कारण थोड़ी सी सर्दी बहुत अधिक शीत में बदल जाने की सम्भावना तो रहती ही है।
क्लम --- यह ग्लानि के अर्थ में आता है। साथ ही इसकी शास्त्रीय परिभाषा निम्न हैयोऽनायासः श्रमो देहे प्रवृद्धश्वासविवर्जितः । कुमः स इति विज्ञेय इन्द्रियार्थप्रबाधकः ॥
शरीर में अचानक उत्पन्न हुई वह थकावट जिसमें व्यक्ति की श्वास नहीं फूलती क्लम कहलाता है जो कि इन्द्रियार्थग्रहण में बाधक सिद्ध होती है । ग्लानि होने पर खाना, सुनना, सूंघना, चखना, स्पर्श करना आदि कुछ नहीं सुहाया करता । ज्वर की पूर्वावस्था में अनायास श्रम का होना स्वाभाविक है। सुश्रुत ने श्रम का वर्णन कर दिया है अतः क्लम को पृथक दिखाने की आवश्यकता नहीं हुई। वाग्भट ने आलस्य का वर्णन तो किया है, जो क्लम के पूर्ण भाव का बोध करा नहीं सकता अतः क्लम का उसे स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा है।
असूया-इसका अर्थ महामहोपाध्याय इन्दु ने 'परस्य दोषाविष्करणम्' किया है जिसका अर्थ है दूसरे के दोष को प्रकाशित करना परन्तु यहाँ ज्वर के द्वारा ग्रासा जाने वाला रोगी किसी के दोष की ओर उतना ध्यान नहीं दे पाता जितना कि अपनी बेचैनी की ओर देता है । यहाँ हम असूया से असहिष्णुता लेंगे। ज्वर की पूर्वावस्था में रोगी में तुनुकमिजाजी बढ़ जाती है । जिसके परिणामस्वरूप
हितोपदेशेष्वक्षान्ति - गुरु, पिता आदि के द्वारा दिये गये हितकर उपदेश की असहनता । इसी को अष्टांगसंग्रहकार ने 'हितोपदेशेषु प्रद्वेषः' लिखा है । यह भी असूया का ही एक व्यक्तरूप है। , प्रीतिरम्लपटूषणे-ज्वर के पूर्व रोगी में 'द्वेषः स्वाळुषु भक्ष्येषु' हो जाता है । वह मधुर भक्ष्य पदार्थों के नाम से ही चिढ़ने लगता है। उसे खट्टे, नमकीन, चरपरे चाट पड़ाके आदि पसन्द आने लगते हैं । यह आस्यवैरस्य का मूर्त परिणाम है । मुख
२७, २८ वि०
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