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- ज्वर
३११ - शीतवातातपादि में इच्छा द्वेष-ज्वराक्रान्त होने वाले रोगी के शरीर में शरीर व्यापारनियमन होने के कारण कभी ठण्डक अच्छी लगती है कभी गर्मी कभी वह हवा चाहता है कभी हवा से द्वेष करता है। जिसे लोक भाषा में 'ततासीरी' कहते हैं वह उसे होने लगती है । अरुणदत्त ने इसे युक्तरीत्या स्पष्ट किया है- कारणं विना सज्वरस्य प्रीत्यप्रीती जायेते । कदाचिदप्रियमपि शब्दं न वेष्टि कदाचित् प्रियमपि वेगवीणादि जनितं वेष्टि। एवं शीतार्तोऽपि कदाचिदग्नि द्वेष्टि, कदाचिदशीता?ऽप्यग्निमभिलषति । एवं शीतादिष्वपि योज्यम् । . ... यहाँ उसने सज्वर प्राणी में प्रीति अप्रीति का विचार किया है। पर यह लक्षण ज्वरपूर्वावस्था का है जो सज्वरता में भी बराबर रह सकता है । ज्वरोत्पत्ति में जब पित्त की प्रधानता होती है तब शीतल उपचार और हवा की रोगी इच्छा करता है जब श्लेष्मा के कारण ज्वर बनने वाला होता है तब धूप या अग्नि सेवन वा उष्णोपचार पर मन जाता है और जब वात जनित विकार होता है तो स्निग्ध उष्ण उपचार प्रिय लगता है । परन्तु यह तो व्यक्त ज्वरता पर ही सम्भव है । ज्वर का स्पष्ट पूर्वरूप तो शीत से तुरत द्वेष और तुरत प्रीति, उष्णता से तुरत द्वेष और तुरत प्रीति तथा हवा से तुरत द्वेष और तुरत प्रीति । रोगी कभी कहता है पंखा करो । कभी कहता है उठा दो और कभी सब कपड़े उतार कर फेंक देता है। इसे अनवस्थित चित्तता कहा जा सकता है जिसका दूसरा अभिव्यक्तीकरण सहिष्णुत्वाभाव नामक शब्द में निहित है। ज्वर पूर्वीरोगी अल्पप्राण होता है। उसका जी अन्दर से घुटता है एक प्रकार की बेचैनी उसे व्यथित किए होती है इस कारण विविध प्रकार की इच्छाएँ और द्वेष जागृत हो जाते हैं। ___ यह इच्छा द्वेष सुश्रुत ने शीतवातातपादिषु बतलाया है। चरक ने उसे ज्वलनातपवायवम्बुभक्तिद्वेषावनिश्चिती के द्वारा अग्नि, धूप, वायु और जल इन चार में अनिश्चित इच्छा और द्वेष को कहा है। वाग्भट ने शब्द, अग्नि, शीत, वात, अम्बु, छाया और उष्णता में आकस्मिक इच्छा वा द्वेष का होना स्वीकार किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि बारम्बार किसी पदार्थ और व्यवहार की इच्छा करना फिर उसी से द्वेष करना अन्यमनस्कता या अस्थिर चित्तता के द्योतक व्यक्त लक्षण ज्वरानुपूर्वी रुग्णशरीरियों में देखे जाते हैं। - अल्पप्राणता-ज्वर एक ऐसी व्याधि है जिसकी उत्पत्ति में सम्पूर्ण शरीर को भाग लेना पड़ता है और जिसका अवसादक प्रभाव जितना मस्तिष्क पर पड़ता है उतना ही हृदय पर भी। प्राणों का आश्रय हृदय ही है। सम्पूर्ण चेतना तत्व यहीं निवास करता है। इस कारण ज्वर के पूर्व हृदयावसाद या अल्पप्राणता का होना अस्वाभाविक नहीं है। चरक की हानिश्च बलवर्णयोः में बल की हानि का और अरुणदत्त के द्वारा व्यक्त स्तोक बलत्वम् अल्पप्राणता का एक ही अर्थ है। प्रत्यक्ष विचार में भी कितना ही शूरवीर प्राणी क्यों न हो ज्वर उसको भीरु बना देता है। चरक ने सदन या अवसन्नता या अवसादकता को पृथक से एक पूर्वरूप माना है।
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