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विकृतिविज्ञान प्रकुपित दोष सर्वप्रथम शरीर के पाचकाङ्गों की क्रिया को अवरुद्ध कर देते हैं। भूख न लगना ( अरुचि) ज्वर का सर्वप्रथम लक्षण माना जा सकता है। पाचनक्रिया की कमी के कारण पवित्र अन्न रस का निर्माण कार्य बन्द हो जाता है जिसके कारण शरीर में आलस्य गौरव और दौर्बल्य बढ़ जाता है। जहाँ-जहाँ होकर रस बहता है उन स्रोतसों पर दूषित दोषों का अधिकार हो जाता है। रसवहाओं द्वारा यह दूषित रस सम्पूर्ण शरीर में पहुँचाया जाता है जिसके कारण शरीर भर में अंगग्रह (जकड़ता) हो जाता है। संक्षित विपरीतगामिनी जाठराग्नि शरीर के कोशा-कोशा में स्थित धास्वग्नि को और भी तीव्र करके सम्पूर्ण शरीर को गर्म कर देती है। शरीर की ये गर्मी स्वेद प्रवाही मशीन को ठप्प कर देती है । जब शरीरस्थ ऊष्मा प्रस्वेदपथ से बाहर होने के लिए मार्ग नहीं पाती तो उसके कारण शरीरोत्ताप और भी बढ़ जाता है और रोगी एक प्रकार की बेचैनी या घबराहट का अनुभव करने लगता है। यह घबराहट बड़े से बड़े शूरवीर में पाई जाती है।
ज्वर का पूर्वरूप श्रमोऽर तिर्विवर्णत्वं वैरस्यं नयनप्लवः । इच्छाद्वेषौ मुहुश्चापि शीतवातातपादिपु ।। जम्भाङ्गमर्दो गुरुता रोमहर्षोऽरुचिस्तमः। अप्रहर्षश्च शीतं च भवत्युत्पत्स्यति ज्वरे ॥ सामान्यतो विशेषात्तु जम्भात्यर्थं समीरणात् । पित्तान्नयनयोर्दाहः कफादन्नारुचिर्भवेत् ।। (सुश्रुत तस्य प्राग्रूपमालस्यमरतिर्मात्रगौरवम् । आस्यवैरस्यमरुचिजम्मा साम्राकुलाक्षिता ।। अङ्गमर्दोऽविपाकोऽल्पप्राणता बहुनिद्रता। रोमहर्षो विनमनं पिण्डिकोद्वेष्टनं क्लमः ॥ हितोपदेशेष्वक्षान्तिः प्रीतिरम्लपटूपणे । द्वेषः स्वादुपु भक्ष्येषु तथा बालेषु तृड्भृशम् ॥ शब्दाग्निशीतवाताम्बुच्छायोष्णेष्वनिमित्ततः। इच्छाद्वेषश्च............ ॥ ( अष्टाङ्गहृदय )
उपरोक्त दो उद्धरणों में ज्वरों में पाये जाने वाले लगभग सभी महत्त्व के पूर्वरूपीय लक्षणों का समावेश हो गया है। हम एक-एक करके उन्हें पुनः पाठक के द्वारा आलोचनात्मक दृष्टिपूर्वक विचार करने के लिए प्रस्तुत करते हैं--
श्रम-या परिश्रम जिसे थकावट ( fatigue ) कहते हैं ज्वर में सर्वप्रथम देखा जाता है । साधारणतः जब अधिक परिश्रम पेशियों से लिया जाता है तो वह गरम हो जाती है और उनमें दुर्बलता आ जाती है । ज्वर में शरीर के तापांश में वृद्धि होती है अतः पेशियों में एक प्रकार की स्वाभाविक थकान हो ही जाती है। अतः ज्वर के बाद में या ज्वर होते समय तो श्रम को कोई भी समय लेगा पर ज्वर के पूर्वरूप का सर्वप्रथम लक्षण श्रम ही होगा यह समझना पड़ेगा। मिथ्या आहार विहार के कारण महास्रोत से प्राणप्रदान करने वाली रस धातु की निर्मिति ठीक से नहीं होती और इस कारण दोषों का व्यतिक्रम भी चलता रहता है। पर शरीर का जीवन व्यापार इस विषम परिस्थिति के होने पर भी चलना आवश्यक होता है। इस कारण अस्वाभाविक
और परिवर्तित वातावरण के कारण जिसका परिणाम आगे चल कर ज्वर हुआ करता है । पहली स्थिति यदि शारीरिक अंगों में थकावट की हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । ज्वर आधुनिक दृष्टि से बाह्य रोगात्मक कारणों का परिणाम होता है। अर्थात
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