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विकृतिविज्ञान
आधार मानता है। इसी लिए ज्वर की चिकित्सा में वह लंघन को प्रमुखता देता है ताकि अकारण जाठराग्नि की प्रबलता को तथा उसके परिणामस्वरूप बढ़ने वाले उत्ताप को रोका जावे । ज्वर में लंघन करने वाला यदि बीच में आहार कर लेता है तो उसके भीषण परिणामों से कोई भी वैद्य अपरिचित नहीं दिखता। तुरत उत्ताप वृद्धि उसका परिणाम है। उत्ताप वृद्धि के साथ साथ प्रलापादि गम्भीर कारण उसी के कारण देखे जाते हैं उसे कौन नहीं जानता। जाठराग्नि की बाहर निकलने वाली प्रवृत्ति को रोकना ही आयुर्वेदीय चिकित्सा का मूलाधार बनता है जिसका प्रौढतम प्रमाण लंघन है। लंघन के द्वारा शान्त होने में ज्वर को जितना अल्पकाल लगता है उतना अन्य प्रकार से नहीं। अतः जाठराग्नि और आमाशय पेट में स्थित अग्नि
और पेट के ही क्रमशः पर्याय मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं दिखती। किसी भी कोष्ठ या अंग में दोष संचय को आमाशय मानकर चलने वाले वहाँ की धात्वग्नि या कोष्ठाग्नि के बाहर निकलने का नाम ज्वर दे सकते हैं पर आगे जो श्लोक दिये हैं उनसे ठीक ठीक तारतम्य नहीं बैठ पाता । कोष्टाग्नि वा जाठराग्नि के बाहर की ओर निकलने से ही उत्ताप या सन्ताप या उष्णता की वृद्धि होती है।
सुश्रुत ने जहाँ स्वेदावरोध, सन्ताप और सर्वाङ्गग्रहण इन तीन लक्षणों के एक साथ उपस्थित होने को ज्वर संज्ञा दी है वहाँ अष्टाङ्गहृदयकार ने अत्युष्णगात्रता को ही ज्वर माना है और इस ज्वर की सम्प्राप्ति के लिए जो श्लोक दिये हैं वे निम्न हैं:
........ मलास्तत्र स्वैः स्वैर्दुष्टाः प्रदूषणैः । आमाशयं प्रविश्याममनुगम्य विधाय च । स्रोतांसि पक्तिस्थानाच्च निरस्य ज्वलनं बहिः। सह तेनाभिसर्पन्तस्तपन्तः सकलं वपुः॥
कुर्वन्तो गात्रमत्युष्णं ज्वरं निर्वर्तयन्ति ते ॥ अरुणदत्त ने इस सम्प्राप्ति को निज ज्वरों की उत्पत्ति माना है। मलाः अर्थात् वातादिदोष स्वैः स्वैः ( अपने अपने ) प्रदूषणैः (कोप के द्वारा) दुष्टाः (कुपित होकर) ज्वरं निर्वतयन्ति (ज्वरोत्पत्ति करते हैं)। वात तिक्तादि द्रव्यों से पित्त कटुकादि औषधियों से और कफ मधुरादि पदार्थों से प्रकुपित हो सकते हैं। आगन्तु हेतु के कारण भी ज्वरोत्पत्ति होती है पर
न हि वातादीन् विमुच्य व्याधेः समुद्भवः कथमपि सम्भाव्यते । ___ अतः आगन्तु कारण भी दोषों को ही उत्तेजित करते हैं। दोषज या निज व्याधि पहले वातादि कुपित करती है फिर बाद में शरीर में पीड़ा होती है। आगन्तुक में सर्वप्रथम शरीर में वेदना होती है तत्पश्चात् वातादिकोपन होता है। ये दोष जो पहले या बाद में प्रकोप करते हैं नाभिस्तनान्तर में स्थित आमाशय में प्रवेश करके आम का अनुगमन कर रसवहस्रोतसों में बैठ कर पक्तिस्थान से जाठराग्नि को शरीर के बाहर निकाल देते हैं । यह अग्नि (रसाग्नि रूप से) सम्पूर्ण शरीर में प्रसरण करती है और गात्र को अत्युष्ण कर देती है। १. आमाशयस्थो हत्वाग्निं सामो मार्गान् पिधाय यत् । विदधाति ज्वरं दोषस्तस्माल्लंघनमाचरेत् ॥
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