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पुननिर्माण
२६७ अति अति शीघ्र बन जाती है और उतनी जल्दी उसमें चूर्णातु के लवण आरोपित नहीं हो पाते। चूर्णियन होने के लिए शरीर में एक विशेष प्रकार के विकर ( enzyme ) की उपस्थिति अनिवार्य है। इस विकर को भास्वीयेद ( phosphatase ) कहा जाता है। मनुष्येतर प्राणियों में जहाँ प्रयोगार्थ अस्थिभग्न किए जाते हैं वहाँ विद्वानों ने इस विकर को पर्याप्त मात्रा में पाया है। इसी कारण उनमें साथ साथ अस्थ्याभ ऊति का निर्माण होता है और साथ ही साथ भास्वीयेद नामक विकर उसमें चूर्णातु लवणों को बिछाकर अस्थि का निर्माण करता चलता है। मनुष्य में इस विकर की उतनी मात्रा उपस्थित नहीं रहती तथा उपसर्ग के कारण भी यह विकर अपनी क्रिया सानन्द नहीं कर पाता इस कारण अस्थियों के भग्न भागों के संयुक्त होने में विलम्ब लग जाता है । ___ अस्थि और पर्यस्थि के मध्य में दण्डिकाओं ( trabecule ) का निर्माण जितना होता है उतना अस्थि और उसकी मज्जक के मध्य नहीं होता।
जब इधर अस्थि का पुनर्निर्माण का कार्य तथा अस्थिशीर्षों के संयोग का तमाशा चलता रहता है उसी समय मृत ऊति तथा अस्थियों के तीक्ष्ण और नुकीले भाग का प्रचूषण (absorption ) भी चलता रहता है। इस प्रकार चूर्णातु लवणों के भास्वीयेद की कृपा से अस्थ्याभ ऊति में आरोपित होने तथा अनावश्यक भाग के विलोपन द्वारा द्वितीय स्थायी किणक का निर्माण होता रहता है। उसके पश्चात् उसको ऐसा कर दिया जाता है कि वह अस्थि जैसा हो जावे । जैसे वलय ( lamellae) अस्थि में देखे जाते हैं वैसे इसमें भी मिलें।
स्थायी किणक को ग्रीन ३ भागों में बाँटता है। वह जो अस्थि के चारों ओर बनता है उसे वह बाह्य किणक (external callus) मानता है। जो टूटे हुए अस्थि सिरों के मध्यवर्ती भाग में पड़ता है वह मध्यवर्ती किणक (intermediate callus ) तथा जो मजकीय सुरङ्ग को मिलाता है उसे अन्तर्वर्ती किणक ( internal callus ) करके वह पहचानना चाहता है।
यदि अस्थि के टूटे हुए टुकड़ों का एकरेखण वा समासम बैठाना ( alignment) ठीक प्रकार से कर दिया जाता है तो बाह्य एवं अन्तर्वर्ती दोनों किणक समाप्त हो जाते हैं केवल अन्तर्वर्ती किणक रह जाता है क्योंकि वे दोनों किणक निरर्थक हो जाते हैं और उनका कोई उपयोग भी नहीं रहता। किणक नष्ट करने के कार्य करने वाले कोशाओं के दल को अस्थिदलक ( osteoclasts ) कहा जाता है। यदि टूटे भाग समासम न बैठ सके तो बाह्य किणक को अस्थिदलक समाप्त नहीं करते बल्कि वह बराबर इसलिए बना रहता है कि शरीर भार पड़ने पर अस्थि उसे सह सके और मनुष्य अपने प्राकृतिक स्वरूप में रह सके।
तन्वीयन ( involution ) की सर्वप्रथम क्रिया के द्वारा अस्थि सिरों के नुकीले भागों को दूर किया जाता है तथा पृथक हुए अस्थिलवों ( detached fragments of bone ) का प्रचूषण किया जाता है। जब अस्थि के टूटे हुए सिरे एक दूसरे से
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