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पुनर्निर्माण
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सम्यगूढ कहा | प्रथम रोपण से यही अवस्था आनी चाहिए ऐसा आयुर्वेदज्ञों का मत है उसमें वक्सवर्ण न कहकर पाण्डुर श्वेतवर्ण कह देना समतल न बतलाकर त्वचा तल से कुछ नीचे ले जाना जो अन्तर दिया है उसे भी ध्यान में रखना आवश्यक है । प्रथम रोपण के लिए व्रण का जीवाणु विरहित रहना और व्रणोष्ठों का समीपस्थ होना आवश्यक है |
कणन द्वारा रोपण ( Healing by granulation ) – जब अत्यधिक ऊति का नाश हो जाता है और व्रणोष्ठों का समीप होना कठिन हो जाता है तब व्रण के तल से रोपण का कार्य प्रारम्भ होता है । रोपण की इस पद्धति का नाम कणन द्वारा रोपण या रोहण ऊति ( granulation tissue ) द्वारा रोपण है । जिन व्रणों का कणन ऊति या रोहण ऊति द्वारा रोपण होता है उनमें आघात के कई कारण देखे जाते हैं उनमें आघात, दग्ध, औपसर्गिक व्रणन तथा उपसर्ग जिनका अन्य कारणों से सम्बन्ध होते हैं मुख्य हैं । यह स्मरण रखना अत्यन्त आवश्यक है कि जिस व्रण में उपसर्ग की पहुँच हो गई हो वह कदापि प्रथम रोपण द्वारा सिद्ध नहीं होता, अपितु, वहाँ कणन ऊति के निर्माण द्वारा ही रोपण होता है ।
जो व्रण धरातलीय होते हैं उनमें कणन ऊति के द्वारा होने वाले रोपण का दर्शन किया जा सकता है । परन्तु गहरे व्रणों में इस क्रिया का अवलोकन नहीं किया. जा सकता । 'कणन' इस नाम का कारण यह है कि धरातलीय व्रणों में जो नव ऊति निर्मित होती है वह कुछ खुरदरी होती है और उसमें छोटे छोटे अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं जिन्हें कण ( granule ) कहा जा सकता है । रोहण ऊति यह आयुर्वेदीय दृष्टि से नामकरण है ।
जिन व्रणों में अत्यधिक ऊतिनाश हो जाता है वहाँ बहुत अधिक अपद्रव्य एकत्र हो जाता है, रक्त के आतंच, मृत ऊतियाँ तथा उपसर्ग एवं औपसर्गिक स्राव मिलते हैं । सर्व प्रथम व्रण में व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया प्रारम्भ होती है जिसके साथ में सितको शाओं तथा प्रोतिकोशाओं का प्रचलन ( migration ) प्रारम्भ हो जाता है । रोपणी क्रिया सम्पूर्ण व्रण के धरातल पर एक साथ चल पड़ती है जिसका प्रमाण तन्तुरूहों की उत्पत्ति ( ये तन्तुरुह प्रोतिकोशाओं - histiocytes से उत्पन्न होते हैं ) तथा केशाल अन्तश्छद की प्रवृद्धि है जिसके द्वारा वाहिन्यकुड्मल ( vascular bud ) का निर्माण होता है । ये नवीन केशाल प्रथम रोपण की तरह दूसरी ओर के केशालों से मिलने नहीं पाते क्योंकि व्रण के बीच का अवकाश अधिक होता है इस कारण वे एक दूसरे से अन्तर्मेल या जालक्रिया ( anastomosis ) के पाश ( loops ) उत्पन्न करते हैं । इन पाशों के कारण अनेक वाहिन्य तोरण ( vascular arches ) बन जाते हैं जिनके ऊपर तन्तुरूहों का कञ्चुक चढ़ जाता है । इन पाशों के आगे निकले हुए भागों को देखकर ऐसा लगता है कि मानो रोपित तल पर कण बिखरे हुए हों । यदि इन कणों को थोड़ा सा भी आघात लग जाय तो अत्यधिक रक्तस्राव होने लगता है । इसी कारण जब किसी ऐसे व्रण में डाली गई पट्टी चिपक २५, २६ वि०
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