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रक्तपरिवहन की विकृतियाँ
२५६ की कोशासंख्या भी जीवित रहेगी। जो कोशाएँ इस प्रकार रक्ताल्पता के कारण मर जाती हैं उनका स्थान तान्तव अति द्वारा ग्रहण किया जाता है। अतः चिरकालीन विशोणता ( chronic ischaemia) का अर्थ उस अंग विशेष की क्रियाशीलता का नाश है।
मस्तिष्क में तन्तूत्कर्ष ( fibrosis ) नहीं होता अपि तु वहाँ पर धातुमार्दव होकर द्रावणमृत्यु ( colliquative necrosis ) हो जाती है पर मस्तिष्क का कार्य अन्य धातुओं की भाँति ही नष्ट हो जाता है।
कोथ (Gangrene ) __रक्त के अभाव से ही कोथ भी सम्बद्ध होने से उसका वर्णन ऊतिमृत्यु नामक स्थान में न करके हम यहाँ करते हैं।
कोथ विकृतिविज्ञान की दृष्टि से २ प्रकार का होता है। कोथ की साधारण संज्ञा गैंग्रीन दी जाती है। इसके एक प्रकार को शुष्क कोथ ( dry gangrene ) तथा दूसरे को आई कोथ ( moist gangrene ) कहा करते हैं।
शुष्ककोथ जब किसी एक भाग की धमनियों द्वारा किसी अङ्ग को रक्त पहुँचाना बन्द कर दिया जाता है तो वहाँ शुष्क कोथ होता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि उस स्थान की सिराएँ और लसवहाएँ ( lymphatics ) सतत कार्य रत रहती हैं।
शुष्क कोथ के निम्न कारण हैं :अ-अन्तःशल्यता ( embolism)
आ-मन्थरगत्या वर्धमान धामनिक घनास्त्रता (slowly progressing arterial thrombosis )
इ-धामनिक अंगग्रह ( arterial spasm ) जो अर्गट विषता या रेनो के रोग में देखा जाता है। ___धमनी के अवरुद्ध हो जाने से उसके द्वारा सिंचित प्रदेश में रक्त का जाना बन्द हो जाता है। उस क्षेत्र से रक्त या तरल का रहा सहा अंश लसवहाओं ( lymphatics ) तथा सिराएँ बहा देती हैं। प्रसूति ( diffusion) तथा उद्वाष्पन (evaporation ) भी द्रवांश का शोषण करते हैं। शेष रक्त वहाँ पर शोणांशित ( haemolysed ) हो जाता है। उसकी शोणवर्तुलि ( haemoglobin ) समीपस्थ ऊतियों में प्रसरण कर जाती है और वहाँ वह बभ्रु या काल रंगा ( brown black pig. ments ) में परिणत हो जाती है जिसके कारण कोथ-ग्रस्त अङ्ग जो पहले पाण्डुर और शीतल था सूखता चला जाता है तथा कठिन, काले या बभ्रु रंग का हो जाता है। साथ ही वह भाग सङ्कुचित भी हो जाता है।
शुष्ककोथ में जीवाणुओं को बढ़ने का बहुत कम अवसर मिलता है। पूयकारी
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