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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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अन्न-जल के सेवन से हो सकते हैं उसी प्रकार यह भी होता है । परन्तु फेबर और सिल्वरबर्ग ने ८ मरणासन्न रोगियों की परीक्षा करके यह बतलाया है कि श्वसनमार्ग तथा ऊर्ध्वमहास्रोतीय मार्ग द्वारा इसका प्रवेश जितना होता है उतना आंतों द्वारा नहीं । ग्रसनी इस दृष्टि से रोग प्रवेश का मुख्य स्थल है । परन्तु यह कहना कि सब - रोगियों में यह विषाणु इसी एक मार्ग से जाता है सरल नहीं है । पर यह निर्विवाद सत्य है कि नासामार्ग द्वारा इस रोग का प्रवेश नहीं होता है जैसा कि बन्दरों में देखा गया है । विषाणु स्वतन्त्र नाडीमण्डल ( प्रथम स्वायत्त चेतामण्डल – sympa thetic nervous system ) की नाडियों द्वारा सुषुम्ना तक ले जाया जाता है। तथा पंचमी नवमी और दशमी शीर्षण्या नाडियों द्वारा यह मध्य मस्तिष्क ऊष्णीषक एवं सुषुम्नाशीर्षक (medulla oblongata ) तक जाता है । ग्रीन की दृष्टि में रोग महास्रोत ( alimentary tract ) द्वारा वातनाडीसंस्थान तक पहुँचता है । महास्रोत की स्वतन्त्र नाडियाँ भी उसे सुषुम्ना तक ले जा सकती हैं ।
विषाणुजन्य रोग जीवनभर के लिए प्रतीकारिता ( immunity ) उत्पन्न करने में जैसे अन्यत्र समर्थ होते हैं उसी प्रकार इस प्रकार के कारण भी प्राणी में जीवनभर के लिए प्रतीकारिता उत्पन्न हो जाती है और प्रतीकारपिण्ड ( immune bodies ) रोग से मुक्त प्राणी के रक्त में पाई जाती हैं । यह प्रतीकारिताशक्ति उपसर्ग के छठे दिन भी मिल सकती हैं। एक बार इस रोग से पीडित होने पर व्यक्ति को दूसरा आक्रमण प्रायः नहीं देखा जाता ।
अब हम शैशवीयाङ्गघात या सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक के विकृत शारीर ( morbid anatomy ) का विचार प्रस्तुत करते हैं ।
जब तानिकाओं ( meninges ) को खोला जाता है तो सुषुम्नाकाण्ड उदुब्जत ( bulged ) हो जाता है यह प्रकृतावस्था से कहीं अधिक दृढ देखा जाता है इसका कारण इसका शोफ ( oedema ) होता है । सुषुम्ना तथा मस्तिष्क दोनों में स्थित धूसर पदार्थ में अधिरक्तता देखी जाती है तथा तानिकाओं में भी रक्ताधिक्य होता है । क्या तानिकाओं द्वारा रोग सुषुम्ना को पहुँचता है ? इस प्रश्न का उत्तर ब्वायड नकारात्मक देता है पर प्रारम्भ में तानिकाओं में विक्षत होते हैं इसे वह मानता है ।
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अण्वीक्षण पर जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं वे गहन और विस्तृत होते हैं । ये परिवर्तन सुषुम्ना के त्रिक भाग ( sacral region ) से लेकर मस्तिष्कमूल पिण्डों तक देखे जाते हैं । सुषुम्ना के कटीय प्रवृद्ध भाग में विक्षत सर्वाधिक होते हैं उसके पश्चात् ग्रैविक प्रवृद्ध भाग में पाये जाते हैं । इस रोग के प्रमस्तिकीय सुषुम्ना शीर्षीय तथा सौषुनिक कई प्रकार मिलते हैं । इनका अभिप्राय यह न समझ लेना चाहिए कि उन्हीं स्थानों पर रोग होता है अपि तु उससे यही लेना चाहिए कि वहाँ वहाँ रोग अपनी तीव्रता के साथ उपस्थित है तथा अन्यत्र भी है। का रोग देखा जाता है जिसका प्रमाण विनीपेग के १९२४ की क्षुद्रमहामारी से
कभी कभी एक ही प्रकार
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