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विकृतिविज्ञान ओर भतिकोशा एकत्र हो जाते हैं और उनका चर्वण कर जाते हैं। इस चर्वण क्रिया को वातनाडीभक्षता ( neuronophagia ) कहा जाता है। इस चर्वण क्रिया में अणुश्लेषकोशा तो प्रमुखतया भाग लेते ही हैं परन्तु बहुन्यष्टिकोशा भी पीछे नहीं रहते। हर्ट ने कृपापूर्वक यह बतलाया है कि जब इन कोशाओं का नाश अतिशीघ्र होता है तब तो बहुन्यष्टिकोशा ही काम तमाम कर डालते हैं पर जब शनैः शनैः क्रिया चलती है तो अणुश्लेषकोशा उनकी इतिश्री करते हैं। कभी कभी नाडी कोशाओं का नाश अतिगत वेग से भी होता है। हस्ट ने एक कपिराज को इस रोग से पीडित पाया और देखा कि उस समय उसके नाडी कोशाओं में कुछ विक्षत हैं। फिर २४ घण्टे पश्चात् जब उनका पुनरवलोकन किया तो देखा अग्रभंग कोशा केवल शव के ढेर मात्र रह गये थे। यह प्रगट करता है कि यह रोग कितना घातक है तथा कितने शीघ्र और पूर्ण अंगघात ( paralysis ) इसके द्वारा हो सकती है। यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि वातनाडियों के विहास और वाहिन्यविक्षतों की तीव्रता ( intensity ) में कोई भी निकट का सम्बन्ध नहीं दीख पड़ता। फिर वातनाडियों का विह्रास कौन करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि यह क्रिया रोगकारक विषाणु के द्वारा नाडी कोशाओं पर डायरेक्ट एक्शन (सीधा आक्रमण ) है।
मस्तिष्ककाण्ड में व्रणशोथात्मक विक्षत कितने ही गम्भीर क्यों न हों वातनाडी कोशाओं में विहासात्मक परिवर्तन ( degenerative changes ) इतने अधिक कदापि नहीं देखे जाते । चाहे अर्दित ( facial paralysis ) हो जावे या श्वसनकेन्द्र के घात से मृत्यु ही हो जावे परन्तु इस क्षेत्र के बहुत ही थोड़े नाडी कन्दाणुओं (चेतैकों) का पूर्ण नाश देखने को मिलता है। अन्य कोशाओं में केवल वर्णवास (chromatolysis ) तथा न्यष्टि का विस्थानान्तरण मात्र देखा जाता है।
पश्चमूल प्रगण्डों ( posterior root ganglia ) में जो विक्षत देखे जाते हैं वे बहुत स्थायी होते हैं वे जैसे कि पहले बताया है वैसे ही होते हैं अर्थात् प्रगण्ड कोशाओं में विह्रास होता है फिर वे अपुष्ट हो जाते हैं तत्पश्चात् उन पर वातनाडी भक्ष टूट पड़ते हैं और वहां व्रणशोथकारी कोशाओं का जमघट हो जाता है। पश्चमूलों में भी व्रणशोथात्मक विक्षत देखे जाते हैं।
रोग की जीर्णावस्था में जब महीनों या वर्षों पश्चात् सुषुम्ना का अवलोकन करने पर अपोषक्षय ( atrophy) का एक चित्र मात्र रह जाता है। प्रायः एक ओर का अग्रशृङ्ग सिकुड़ जाता है और प्रगण्ड कोशाओं का स्थान ताराश्लेषकोशा ले लेते हैं। सुषुम्ना की मृदुलता के कारण उसमें कई स्थानों पर गुहाएँ ( cavities ) बन जाती हैं। वीगार्टपाल विधि से अभिरंजन करने पर श्वेतद्रव्य का प्रसर विहास स्पष्टतः प्रकट हो जाता है। जो पेशियाँ घातित हो जाती हैं उनमें भी अपोषक्षय मिलता है स्नैहिक भरमार तथा तान्तव अति का उत्कर्ष देखा जाता है। यद्यपि व्यापक मस्तिष्कपाक के प्रकरण में हमने इस रोग की उस रोग से तुलना कर दी है पर विलियम ब्वायड के शब्दों में दोनों के सम्बन्ध में निम्न वाक्य का उल्लेख बिना
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