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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २२६ विकृतशारीर की दृष्टि से इस रोग में सम्पूर्ण केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान के धूसर द्रव्य पर प्रभाव पड़ता है । सुषुम्ना के अग्र और पश्च दोनों शृङ्गने में विहास मिलता है पश्चमूल प्रगण्ड में भी स्पष्ट परिवर्तन मिलते हैं। मस्तिष्क बाह्यक के बृहत् प्रगण्डीय कोशाओं (बैज कोशाओं Betz cells ) में सौम्य परिवर्तन मिलते हैं उसी प्रकार के परिवर्तन ऊष्णीपक की न्यष्टियों में भी पाये जाते हैं। सुषुम्ना के श्वेतद्रव्य में वालरीय विह्रास देखा जाता है तथा तन्तुओं का विखण्डन (fragmentation) हो जाता है। सुषुम्ना तथा परिणाही वातनाडियों में रक्तस्राव पाये जाते हैं। मस्तिष्कसुषुम्नाछद इस रोग में निर्विकार रहती है।
बन्दरों पर इस रोग के सौषुम्निक प्रनिलम्ब के अन्तःक्षेपण द्वारा एक से दूसरे में यह रोग उत्पन्न किया जा सकता है । नागूचीय माध्यम पर संवर्धन करके विल्सन ने गोलाभपिण्डों (globoid bodies ) का पता लगाया है। ये गोलाभपिण्ड ठीक उसी प्रकार के होते हैं जैसे फ्लैक्शनर और नागूची ने तीव्र सुषुम्नाधूसरद्रव्यपाक में प्राप्त किये थे। _इस प्रकार हमने व्रणशोथ के विविध शारीरिक अंगों के प्रभाव के सम्बन्ध में नातिविस्तृत जो विवेचना की है उससे पाठक यह भले प्रकार समझ लेंगे कि व्रणशोथ को साधारण समझ उपेक्षा करना अत्यन्त हानिप्रद हो सकता है अतः इसके सम्बन्ध में पूर्णतः सतर्क होने की आवश्यकता है। हमने इस प्रकरण में प्रणाली विहीन ग्रन्थियों ( ductless gland ) पर व्रणशोथ के प्रभाव का कोई उल्लेख नहीं किया है क्योंकि उसके सम्बन्ध में अभी आवश्यक सामग्री का अभाव ही दृष्टिगोचर होता है। केवल अवटुकापाक ( thyroiditis) का थोड़ा वर्णन मिलता है। आगे जब इस सम्बन्ध में विशेष ज्ञान प्राप्त होता जावेगा प्रकरण के कलेवर की वृद्धि कर दी जावेगी। नेत्र और कर्ण सम्बन्धी पाकों का विवरण विशिष्ट विषय समझ छोड़ दिया गया है क्योंकि उनका समावेश ग्रन्थ को मर्यादा से अधिक विस्तृत बना देने वाला है।
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