________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विहास
२३७
I
है । मेघाभगण्ड स्नैहिक विहास ( fatty degeneration ) की पूर्वावस्था बतलाई जाती है। मेघाभगण्ड कोशा के कायाणुरस के उन परिवर्तनों में से एक है जिनके कारण कोशा की मृत्यु तक हो सकती है । मृत ऊति के आत्मांशन (autolysis ) का प्रथम लक्षण भी यही है । कोषाओं के साधारण व्रणशोथ ( inflammation ) में भी यह पाया जाता है । व्रणशोथ का प्रधान कारण कोई प्रक्षोभक हेतु हुआ करता है । यदि वही हेतु और अधिक उग्र हुआ तो धातुनाश वा अपजनन हो सकता है । मेघसमशोथ स्वयं कायाणुरस ( cytoplasm ) के उन परिवर्तनों में से एक है जिनके कारण कोशा की मृत्यु तक हो सकती है । मेघाभगण्ड मृत ऊति के आत्मांशन ( autolysis ) का भी प्रथम लक्षण है । जब किसी विष से किसी सजीव कोशा को आघात पहुँचता है तो उसके चिद्रस के अणु और छोटे छोटे भागों में विभक्त हो जाते हैं जिसके कारण कोशा के अन्दर का आसृतीय पीडन ( osmotic pressure ) बढ़ जाता है जिसके परिणामस्वरूप कोशा में जल खिंचने लगता है और वह फूल जाता है ।
यह मेघाभगण्ड दूर होकर कोशा स्वस्थ हो सकता है बशर्ते कि विष की क्रिया निष्क्रिय वा बन्द कर दी जावे ।
स्वरूप - मेघाभगण्डयुक्त ऊति के कोशा फूल जाते हैं, श्वेत और मृदु हो जाते हैं तथा अपारदर्शक हो जाते हैं । अणुवीक्षण से देखने पर अरञ्जित कोशाएँ फूली हुई दिखती हैं उनका चिद्रस कणमय हो जाता है । न्यष्ठीला ( nuclaus ) एवं कोशा की आकृति विचित्र हुई दीखती है । कणों से प्रकाश का परावर्तन ( reflection ) मन्द होता है, उन पर गुर्विक अम्ल का भी कोई प्रभाव नहीं होता । वे तनु शुक्तिक अम्ल ( dilute acetic acid ) में घुल जाते हैं । इसके कारण यह पता चलता है कि ये श्वितिय ( albuminous ) होते हैं। आगे चलकर उनमें स्नेह विन्दु उत्पन्न होने लगते हैं ।
स्थान – मेघाभगण्ड या मेघसमशोथ जैसा परिवर्तन यकृत्, वृक्क, हृदय और ऐच्छिक पेशियों में प्रायशः मिला करता है । जब रोगाणुरक्तता ( septicaemia ), फुफ्फुसपाक ( pneumonia ), या उदरच्छदपाक ( peritonitis ) आदि में रोगी की मृत्यु हो जाती है तो उसकी मृत्यूत्तर परीक्षा में भी यह परिवर्तन प्रायः देखने को मिलता है।
इसका वृक्कों में प्रमुख प्रभाव बाह्यक ( cortex ) पर पड़ता है वह श्वेत पड़ जाती है तथा वृक्क के स्तूपों ( pyramids) एवं वृक्काणुओं ( malpighian bodies ) में रक्त अधिक भर जाता है ।
हृदय की प्राचीरों में जब यह शोथ देखा जाता है तो वे श्वेत हो जाती हैं तथा मृदु भी । हृत्पेशी तन्तुओं की रेखाएँ ( striation ) समाप्त हो जाती हैं । बल्कि वे कणमय हो जाती हैं । रचना में कमी आने का परिणाम क्रिया की कमी में भी होता है ।
For Private and Personal Use Only