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विकृतिविज्ञान विशोणता ( ischaemia ) भी इस रोग का एक कारण है। पीडन के कारण पोषणिका वाहिनी द्वारा वातनाडी का यथावत् पोषण नहीं हो पाता। सग्रन्थि परिधमनीपाक (peri-arteritis nodosa ) नामक रोग में पोषणिका वाहिनियों का मुख संकुचित हो जाने से उनके द्वारा जो वातनाडियों का पोषण होता है उसमें भी कमी हो जाती है जिसके कारण उन वातनाडियों में भी विहासात्मक परिवर्तन होने लगते हैं और जिनके कारण उस रोग में वातिकशूल (neuritic pains) विशेषतः देखे जाते हैं। आजकल जो वातिकशूलों में जीवित ख का प्रयोग चल रहा है उसका आधार भी यही है कि पोषणिका वाहिनियों द्वारा इस द्रव्य का अधिक प्रमाण वातनाडियों तक पहुँचाया जावे ताकि उसकी कमी दूर होकर उनका विहास रुक जावे। ___ परिवर्तन सर्वाधिक मात्रा में एक नाडी के परिणाह भाग (peripheral part) में देखा जाता है इसी कारण रोग को परिणाही वातनाडीपाक ( peripheral neuritis ) कहा जाता है । यद्यपि इस पाक में वातनाडी के सभी तत्वों पर प्रभाव पड़ता है परन्तु विमजिकंचुक पर सबसे अधिक आघात देखा जाता है। परिवर्तन लगभग वैसे ही होते हैं जो एक वातनाडी को काट देने के उपरान्त देखे जाते हैं
और जिन्हें वालरीय विह्रास कहकर पुकारा जाता है। इसमें पहले विमजिकंचुक छिन्न भिन्न हो जाता है और उसके स्नेहविन्दुक ( droplets of fat ) बन जाते हैं जिन्हें मार्ची की अभिरंजना पद्धति से रंगने पर काला रंग आता है । पर जब अक्षरम्भों को हम बीलशावस्की अभिरंजना विधि से रंगते हैं तो उनमें उतने अधिक परिवर्तन नहीं देखे जाते जो वालरीय विहास में मिलते हैं। पर जब रोग गम्भीरस्वरूप का होता है तो वे तन्तुकित ( fibrillated ) हो जाते हैं और उनके मार्ग में प्रफुल्लित सूजन ( varicose swelling ) आ जाती है । सौम्य रोग होने पर वे अप्रभावित रहते हैं । वातनाडी के आवरण जिसे सूक्ष्मतरकलाकंचुका ( sheaths of Schwann ) कहकर गणनाथसेन ने लिखा है अत्यधिक सक्रियता देखी जाती है । उसके कोशा प्रगुणित हो जाते हैं और भतिकोशा बन जाते हैं इस कारण उनके अन्दर मेदाभ ( lipoid ) पदार्थ भरा हुआ देखा जाता है। तीव्र औपसर्गिक नाडीकन्दाणुपाक (Acute Infective Neuronitis) ___ इस रोग का ज्ञान प्रथम विश्वयुद्ध में हुआ था। इसे इंग्लैण्ड में तीव्र औपसर्गिक बहुनाडीपाक तथा अमेरिका में तीव्र औपसर्गिक नाडीकन्दाणु या चेतैकपाक कहते हैं। इस रोग में मुखमण्डल और ग्रसनी की पेशियों का घात हो जाता है जिसके कारण निगलना अत्यन्त कठिन हो जाता है उसी के साथ साथ सक्थिसलियों में दौर्बल्य या घात भी देखा जाता है । कुछ रुग्णों में पश्वस्तम्भ का भी प्रभावित होना पाया गया था जिसके कारण पेशी, सन्धि तथा आवेप ( vibration) की गतियों का बोध ( sense ) नष्ट हो जाता है । अधोत्रिक खण्डों में इस बोध की कमी होती है तथा साथ में द्वार संकोचकों (sphincters) के नियन्त्रण में भी कमी हो जाती है।
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