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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २२५ पीडित रोगियों में एक प्रकार की प्रतीकारिता शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण रोग का दूसरा आक्रमण सम्भव नहीं होता परन्तु सीविशिष्ट में यह शक्ति उतनी पूर्ण नहीं होती जितनी कि सुषुम्नापाक में। जिस प्रकार सुषुम्नापाक एक पाव्य विषाणुजन्य व्याधि है उसी प्रकार सीविशिष्ट भी है। ____ दानों के उद्भेदन ( eruption ) के पूर्व वातशूल ( neuralgia ) एक पूर्व रूप के तौर पर देखा जाता है। यह उद्भेदन सदैव आधे शरीर तक होता है और दूसरी ओर नहीं जाता। द्वितीय पृष्ठ और द्वितीय कटिप्रदेशीय वातनाडियों के बीच का प्रायः कोई एक प्रगण्ड इस रोग के चक्कर में आता है। सक्थि-सनियों में जब यह रोग होता है तो पेटी ( zoster ) के समान उस अंग का ग्रहण कर लेता है। शिर में उद्भेदन होने का अर्थ त्रिधारग्रन्थि में विक्षत बन जाना है । जो उद्भेदन इस रोग में होता है उसका स्वरूप सर्वप्रथम अतिरक्तिमा ( erythema) का होता है। उससे एक अंकुर ( papule ) उठता है तत्पश्चात् एक आशयक ( vesicle ) का निर्माण होता है जिसमें स्वच्छ तरल भरा होता है। जब यह फूट जाता है तो एक पर्पटी ( crust ) जम जाती है जो आगे चल कर विशाल्कत हो जाती है और एक व्रण रह जाता है जिसमें फिर व्रणवस्तु बनती है। यह रोग २० वर्ष की आयु से पूर्व जितना अधिक मिलता है बाद में उतना नहीं परन्तु जिनको यह वृद्धावस्था में सताता है उन्हें अत्यन्त कष्ट और वेदना प्रदान करता है तथा बहुत कालतक रहता है।
इस रोग का प्राथमिक विक्षत तो पूर्णतः पश्चमूल प्रगण्ड तक ही सीमित रहता है परन्तु द्वितीयक विक्षत वातनाडीतन्तुओं तक में देखे जा सकते हैं। त्रिधारग्रन्थि (gasserian ganglion ) पर बहुधा प्रभाव होता हुआ देखा जाता है ग्रन्थि सूज जाती है तथा उसमें रक्ताधिक्य हो जाता है। अण्वीक्षण पर कोई विशिष्ट परिवर्तन तो मिलते नहीं हैं परन्तु अविशिष्ट ( nonspecisfic ) परिवर्तन रक्ताधिक्य, रक्तस्राव, लसीकोशाओं का परिवाहिन्य एकत्रण तथा प्रगण्डीय कोशाओं का विहास आदि लक्षण जैसे कि आलर्क सुषुम्नापाक, मस्तिष्कपाक आदि में देखे जाते हैं मिलते हैं। कुछ कोशाओं का विह्रास हो जाता है कुछ के चारों ओर वातनाडीभक्षिकोशा चिपट जाते हैं, कुछ नष्ट हो जाते हैं और कुछ इन सब कठिनाइयों को झेल कर स्वस्थ बने रहते हैं। प्रगण्डों के समीप की वातनाडियों तक व्रणशोथ बढ़ जाता है। दस दिन पश्चात् मार्ची की अधिरंजना विधि से देखने पर संज्ञावहतन्तुओं में पृष्ठवातमूलों ( dorsal nerve roots ) में तथा परिणाही वातनाडियों के अन्तिम सिरे तक तथा पश्चस्तम्भों (posterior columns ) तक में वालरीय विहास देखा जा सकता है। ___ गौण लाक्षणिक सी ( secondary symptomatic herpes ) नामक रोग उन अनेक रोगावस्थाओं में देखा जाता है जहाँ पश्चमूलों या पश्चमूल प्रगण्डों में आघात हो जाता है टेबीज़ (tabes) में जहाँ पश्चनाडीमूलों में विक्षत सर्वप्रथम बनता है यह रोग साथ साथ देखा जाता है यह सर्वांगघात (general paresis),
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