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विकृतिविज्ञान श्वशृगालतरवृक्षव्याघ्रादीनां यदानिलः । श्लेष्मप्रदुष्टो मुष्णाति संज्ञां संशावहाश्रितः ॥ तदाप्रसस्तलाशूलहनुस्कन्धोऽतिलालवान् । अव्यक्तबधिरान्धश्च सोऽन्योऽन्यभिधावति ।।
जब कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, भालू, सिंहादि की वायुश्लेष्मा से प्रदुष्ट होकर संज्ञावहस्रोतों ( sensory nerve paths ) में जाकर संज्ञा का नाश कर देती है जिससे पूँछ, ठोडी और कन्धे अपने स्थान से च्युत हो जाते हैं और वह बहुत अधिक लाला का स्राव करता है और वह बधिर वा अन्धवत् एक दूसरे कुत्ते गीदड़ मनुष्यादि पर धावा कर देता है।
जलसंत्रास इस व्याधि का एक असाध्य लक्षण करके आचार्यों ने माना हैत्रस्यत्यकस्माद्योऽभीक्ष्णं दृष्ट्वा स्पृष्ट्वाऽपि वा जलम् । जलत्रासं तु तं विद्याद्रिष्टं तदपि कीर्तितम् ॥
कोई आवश्यक नहीं कि जलसंत्रास वा जलत्रास नामक लक्षण पागल प्राणी के काटने से ही मिले वह तो बिना उसके भी मिल सकता है। उसकी विकृति का वर्णन आचार्यों ने निम्न शब्दों में किया है:
बुद्धिस्थानं यदा श्लेष्मा केवलः प्रतिपद्यते । तदा बुद्धौ निरुद्धायां श्लेष्मणाऽधिष्ठितो नरः ।। जाग्रत्सुप्तोऽथवाऽऽत्मानं मजन्तमिव मन्यते । सलिलाव्यस्यति तदा जलत्रासं तु तं विदुः ॥
अर्थात् जब बुद्धिस्थान में श्लेष्मा ही केवल संचित हो जाता है तो वहाँ मार्ग रोक देता है जिससे जागता हो या सोता हो, रुग्ण अपने को जल में डूबा हुआ अनुभव करता है इसी कारण वह जल को देखकर डरता है और यह रोग जलत्रास (hydrophobia) कहलाता है। यतः यह जलत्रास कुपित कफ द्वारा होता है इस कारण रिष्ट (असाध्य) नहीं माना जाता:
अयं जलत्रासः कुपितकफस्य भवतीति रिष्टं न भवति । पर सुश्रुत इसे भी असाध्य कहता है
___ अदष्टो वा जलवासी न कथंचन सिद्धयति । ___ जलनास या आलर्क रोग का संचयकाल साधारणतया ३०-४० दिन का होता है पर यह दष्टस्थान पर निर्भर करता है। जहाँ पर प्रदुष्ट श्लेष्मा पड़ता है वहाँ स्थित वातनाडियाँ उसका ग्रहण कर लेती हैं और इसका विषाणु वातनाडियों द्वारा संज्ञावह नाडियों द्वारा चल पड़ता है। यदि हम सुश्रुतोक्त सूत्रों को 'यदानिलः श्लेष्मप्रदुष्टो मुष्णाति संज्ञा संज्ञावहाश्रितः' ध्यान से देखें तो जो आधुनिक विवरण हम दे रहे हैं उससे वह यथावत् मिलता है। यदि यह संज्ञावह मार्ग लम्बा हुआ जैसा कि हाथ या पैर में काटने पर होता है तो रोग का संचयकाल भी बढ़ जाता है पर यदि यह मार्ग छोटा हुआ जैसा कि गर्दन या मुख पर काटने के उपरान्त होता है तो संचयकाल भी छोटा होता है। संचयकाल कितना है इसका ध्यान चिकित्सा के समय इस रोग में करना परमावश्यक हो जाता है । इस रोग में अत्यन्त महत्त्व के दो लक्षण होते हैं एक तो निगलने की पेशियों का आक्षेप (spasm of the muscles of deglutition) और दूसरा सर्वाङ्गीण प्रकम्पन (generalised convulsions ) पहले के
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