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विकृतिविज्ञान
अब हम तीव्र भग्र धूसरसुषुम्नापाक या तीव्र अग्र सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक का वर्णन करते हैं ।.
तीव्र अग्र सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक या शैशवीयाङ्गघात (Acute anterior Poliomyelitis or Infantile Paralysis)
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सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक उन वात रोगों में से एक है जो स्थानिक या जानपदिक किसी भी रूप में उत्पन्न हो सकता है । इस शताब्दी के आरम्भिक चतुर्थांश काल में इसका जगद्व्यापी प्रभाव देखा जा चुका है । यह शिशु रोग न हो कर बालरोग है और १५ वर्ष या उनसे भी बड़े बालकों में देखा जाता है । यह रोग ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में हर वर्ष आता और शीत से पूर्व चला जाता है । ग्रीष्म ऋतु में आने के कारण कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि कदाचित् इसका संक्रामण ( transmission ) किसी की प्रसारक ( insect vector ) द्वारा होता होगा और मक्खी को इसका कर्ता मानते थे जो आज एक भ्रममात्र रह गया है । इस रोग का प्रसारकर्ता न कोई कीट है और न इस रोग से पीडित एक दुखी प्राणी अपि तु एक स्वस्थ वयस्क वाहक होता है जिसकी नासाग्रसनी में इस रोग का करने वाला एक विषाणु रहता है । यदि उस व्यक्ति को यह रोग हो गया तो उस विषाणु की रोगसंवाहन की शक्ति नष्ट हो जाती है पर यदि व्यक्ति रोग से पीड़ित न हो सका तो उसकी नासाग्रसनी में यह विषाणु २-३ सप्ताह जीवित रहता तथा रोग का प्रसार करता रहता है । चूँकि रोगी इस रोग का प्रसार करने में असमर्थ रहता है इसी कारण आतुरालयों में सामान्य आतुर कोष्ठों ( wards ) में भी इस रोग से पीडितों को प्रविष्ट कर लिया जाता है ।
सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक एक पाव्यविषाणु ( filtrable virus ) द्वारा होने वाला रोग है । यह एक विशुद्ध चेताकर्षी या वातोत्याकर्षी ( neurotropic ) रोग है । यह रोग कृन्तकों ( rodents ) द्वारा फैलाया जा सकता है जिसका प्रमाण ह है कि यदि किसी घर में इस रोग से पीडित कोई प्राणी हो और उसके यहाँ के किसी चूहे को पकड़ कर परीक्षा की जावे तो उसमें यह रोग मिलता है । यह रोग नासामार्ग पर विषाणु का लेपन करके बन्दरों में भी उत्पन्न किया जा सकता है परन्तु मनुष्यों में इस पद्धति से रोगोत्पत्ति नहीं की जा सकती ।
रोगकाल में तथा रोगोत्तरकाल में इस रोग के विषाणु को रोगी के मल में भी देखा गया है और उसे वहाँ से पृथक् किया जा सकता है । यह चुद्रान्त्र, बृहदन्त्र तथा आन्त्रनिबन्धनी के लसगण्डों (lymph nodes of mesentery ) में भी पाया गया है । विषाणु की मल में प्राप्ति जितनी सरल है उतनी सिंघाणक ( nasal washings ) में सरल नहीं है । मल कई सप्ताह तक उपसृष्ट देखा जाता है परिणामों से ऐसा प्रतीत होता है कि शैशवीयाङ्गघात प्रथमतः आन्त्रिक रोग है न कि श्वसनमार्गीय । इससे यह भी लगता है कि जैसे आन्त्रिक ज्वरादि के उपसर्ग अशुद्ध
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