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विकृतिविज्ञान
पेशी के उपरिष्ट कुछ स्तर व्रणित हो जाते तथा नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं । गर्भाशय ग्रीवा के कर्कट में यह प्रायः देखा जाता है ।
जीर्ण गर्भाशय पेशीपाक — यह विकार उष्णवात गोलाणुजन्य होता है तथा प्रसूति दूषकताकर रोगाणुओं के द्वारा भी मिलता है । जब गर्भाशय प्रयाशय में परिणत हो जाता है उस समय भी यह हो सकता है। इन सब हेतुओं में गर्भाशयान्तःपाक उसके साथ रहता है । कभी कभी वह विना व्रणशोथकारी जीवाणुओं के भी हो सकता है जब कि बीजकोष के न्यासर्गों की क्रियाशीलता में बाधा पड़ती है । इस व्याधि में गर्भाशय की प्राचीर तन्तूत्कर्ष के कारण स्थूलित हो जाती है उसकी अन्तरालित ऊति में प्ररसकोशा और लसीकोशा खूब मिलते हैं। साथ ही मासिकधर्म में भी कुछ गड़बड़ हो जाती है जिसके कारण अत्यधिक रक्तस्राव या असृग्दर भी मिलता है ।
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जीर्ण ग्रैवपाक ( chronic cervicitis ) — यह सत्य है कि मासिकधर्म की क्रिया में केवल गर्भाशयपिण्ड की श्लेष्मलकला ही भाग लेती है, गर्भाशयग्रीवा की श्लेष्मकला उसमें भाग नहीं लेती इस कारण वह नित नवीन भी नहीं हो पाती और सूक्ष्म रोगकारी जीवाणु सरलता से तथा सुरक्षा के साथ उसमें निवास करते हुए देखे जाते हैं। ग्रीवा में स्थित बड़ी बड़ी श्लेष्मा ग्रन्थियाँ भी उन्हें पूर्ण संरक्षण प्रदान करती हैं । गर्भाशयग्रीवा में उपसर्ग २ प्रकार से प्रवेश पाता है । एक प्रकार है प्रसवकालीन ग्रैविक आघात अर्थात् जब गर्भाशय छोड़ कर शिशु जन्म लेता है तो उसके निकलते समय ग्रैविक श्लेष्मलकला विदीर्ण हो जाती है जिस पर उपसर्गकारी जीवाणु सरलतया अपना आसन जमा लेते हैं दूसरा प्रकार है उष्णवातज गोलाणु की उपस्थिति । प्रसवकाल में गर्भाशयग्रीवा के दोनों ओष्ठ विवृत ( everted ) हो जाते हैं और ग्रैवान्तरीयकानाल ( endocervical canal ) का विगोपन ( exposure ) हो जाता है । प्रैविक श्लेष्मग्रन्थियों में पहले उपसर्ग पहुँचता है और वहाँ से श्वेत श्लेष्मपूयीय स्राव निकलने लगता है जिसे हम प्रदर ( leucorrhoea ) कहते हैं । उन ग्रन्थियों के चारों ओर की योजी ऊति सूज और फूल जाती है (becomes swollen and oedematous ) और उसमें व्रणशोथकारी कोशाओं ( विशेष करके प्ररस कोशाओं) की भरमार हो जाती है । अन्ततः, सम्पूर्ण गर्भाशयग्रीवा कठिन और तन्त्विक ( fibrotic ) हो जाती है चिरकालीन प्रक्षोभ तथा ग्रन्थियों से अत्यधिक स्त्राव के कारण जैविक अपरदन (cervical erosion) हो जाता है । ग्रैविक अपरदन में गर्भाशयग्रीवा के बाह्य मुख के चारों ओर एक लालक्षेत्र बन जाता है जिसमें से रक्त चूता रहता है तथा उसे देख कर मैविक कर्कट का सन्देह होने लगता है परन्तु इसका वर्ण मखमली ( velvety ) होता है तथा छूने पर यह काफी दृढ ( tough) होता है तथा क्षोद्य (friable ) नहीं होता जैसा कि कर्कट होता है । प्रारम्भिक अवस्थाओं में शल्कीय अधिच्छंद नष्ट हो जाता है उसमें हस्व गोलकोशाओं की भरमार हो जाती है । उसके उपरिष्ट भाग में व्रणन ( ulceration ) होने लगता है
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