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विकृतिविज्ञान
बन जाता है । किन्तु इस रूप को लेने के पूर्व यह कोशा-दण्ड ( rod cell ) का रूप धारण कर लेता है जैसा कि सर्वांगघात में प्रायशः मिलता है । संयुत सकण कोशा और दण्ड कोशा के रूप में हमारे विकृतिवेत्ता इसे वर्षों से जानते आये हैं परन्तु उनको इसका पता नहीं था कि इनका जनक अणुश्लेष कोशा है जिसे होगा ने वर्षों बाद अपनी रजत प्रांगारीय अभिरंजना पद्धति द्वारा प्रगट किया है। इस प्रकार दण्ड कोशा झौर मेदकण कोशा का जनक अणुश्लेष कोशा हमें मान लेना चाहिए। साथ ही साथ ये कोशा जहां आघात है उधर बराबर बढ़ते चलते हैं । पूयन सकण कोशाओं का निर्माणकर्ता नहीं होता परन्तु जहां मस्तिष्कमार्दव या उसका विनाश होता है उन विक्षतों में ये बहुत बड़ी संख्या में देखे जाते हैं । विमुक्त हुई विमज्जि का भक्षण करके ये कामरूपाभ भक्षिकोशा अपने आधेय ( contents ) को समीपस्थ उन वाहिनियों में ले जाते हुए मालूम पड़ते हैं जिनके साथ वे संलग्न होते हैं । यह हो सकता है कि वहाँ वे अपने को खाली कर देते हों । अणुश्लेष कोशाओं का विहासी तान्तव तारा कोशाओं पर एक विशिष्ट प्रभाव यह देखा जाता है कि वे उनके टूटे हुए विस्तारों के चारों ओर लिपट जाते हैं और उनको दूर कर देते हैं तथा ताराकोशाओं से बिलकुल भी नहीं बोलते। इस प्रक्रिया को चेतालोमभक्षिकोशोत्कर्ष ( dendrophagocytosis) कहते हैं और इसका प्रत्यक्ष दर्शन विहासी श्लेषार्बुद ( disintegrating glioma ) में किया जा सकता है ।
यह भी कहा गया है कि अणुश्लेष जालकान्तश्छदीय संस्थान के अन्दर ही समा विष्ट किया जा सकता है क्योंकि दोनों का मुख्य कार्य भक्षिकोशीय ( phagocytic ) ही है । सर्वाङ्गघात में अणुश्लेष कोशाओं में लोहा लद जाता है । जालकान्तश्छदीय संस्थान के कोशा भी लोहे के प्रति पर्याप्त प्रीति रखते हैं । लोहा नाडी श्लेष और उसके दोनों प्रकारों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं रखता और न उनमें पाया जाता है । अणुश्लेष स्वस्थ मस्तिष्क में क्या कार्य करता है यह अभी तक पता नहीं चला ।
विकास - केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान के विविध द्रव्यों का विकास ( development ) किस प्रकार से और कहाँ से होता है इसका वर्णन करना एक जटिल समस्या है क्योंकि इस दृष्टि से उस ग्रन्थ का लेखनकार्य किया भी नहीं जा रहा है । परन्तु जिन कोशाओं का अभी हम वर्णन करते आ रहे हैं उन्हीं के सम्बन्ध में दो शब्द लिख देना पर्याप्त होगा । मज्जक पट्ट ( medullary plate ) के अधिच्छद से दो प्रकार के कोशा उगते हैं, एक रोहिकोशा ( germinal cells) और दूसरे छिद्रि - रुह
spongioblasts )। रोहिकोशा वातनाडी रूह या चेतारुह ( neuroblasts ' बनाते हैं जो आगे चल कर वातनाड़ियों में परिणत हो जाते हैं । छिद्रिरुहों से निस्सन्देह ताराकोशा तथा अल्पचेतालोमश्लेष बनते हैं । अणुश्लेष का निर्माण मध्यस्तरीय ऊति द्वारा होता है । मृदुतानिका के नीचे मध्यस्तरीय उति से ही इसक उत्पत्ति होती है। जहां से यह जन्म के पश्चात् मस्तिष्क में प्रव्रजन ( migration ' करके आ जाता है ।
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