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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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५- पूयरक्तता - विशेष कर जब फुफ्फुस में कहीं पूय एकत्र हो जाता है जैसे उरःक्षत ( bronchiectasis ) में अथवा पूयोरस् ( empyema ) में । क्योंकि फुफ्फुस में उद्भूत अन्तःशल्य के लिए मस्तिष्क एक पावन ( filter) का कार्य करता है । ६ करोटि की अस्थियों के रोग जैसे अस्थिमज्जापाक या फिरंगजन्य अस्थिनाश ( syphilitic necrosis )
इन सभी हेतुओं में मध्यकर्णपाक प्रधानतम होता है । यहाँ उपसर्ग अन्तः कर्णमार्ग द्वारा गमन न करके या तो ऊपर की ओर कर्णपटह आच्छद ( tegmen tym pani ) में होकर या मस्तिष्क के पदार्थ में होकर बहने वाली सिराओं के सहारे सहारे चलता है । कर्णपटहाच्छद में होकर जाने वाले उपसर्ग का अनुमार्गण सरलता से किया जा सकता है क्योंकि इसमें अस्थि का अपरदन होता है तथा अस्थि और दृढ़तानिका के मध्य में कणनऊति का पुञ्ज होता है अथवा यह निश्चिति से एक उपतानिकी विद्रधि बन जाती है । यह विशेष उल्लेखनीय है कि यहाँ उपसर्ग जालतानिका तक पहुँच जाने पर भी सामान्य मस्तिष्कच्छदपाक नहीं देखा जाता । जो अभिलग्न ( adhesions ) बनते हैं वे सामान्य रोग विस्तृति को रोके रहते हैं ।
जब सिराओं या लसवहाओं (lymphatics) के सहारे सहारे रोग बढ़ता है तो अस्थि तथा मस्तिष्क का भाग पूर्णतः स्वस्थ मिलता है ।
मध्यकर्ण रोग होने पर मस्तिष्क के शंखजतुकास्थीय खण्ड के अधोभाग में विधि वनती है कभी कभी निमस्तिष्क ( धमिल्लक) में भी वह बन सकती है । प्रथम स्थान विधि शान्ततया बनती है और कोई विशेष लक्षण नहीं मिलते यदि हुआ तो
अंगघात हो सकता है पर यदि विद्वधि ऊपर की ओर बढ़ी तो पहले मुखमण्डल फिर बाहु और अन्त में टाँगों पर प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि बाह्यक केन्द्र एक एक करके प्रभावित होते जाते हैं। यदि वह विद्रधि भीतर की ओर बढ़ती है तो पहले टाँग, फिर बाहु और अन्त में चेहरे पर प्रभाव पड़ता है क्योंकि विसारि किरणमण्डल ( internal capsule ) में पीछे से आगे की ओर सूत्र इसी क्रम से विन्यस्त रहते हैं ।
afrate for प्रायशः अकेली ही रहती है पर पूयरक्तता के कारण वह बहुसंख्यक भी हो सकती है । तीव्रावस्था में समीपस्थ मस्तिष्क ऊति में भी व्रणशोथ हो सकता है और वह पूय से युक्त और मृदु बन सकती है । यदि आगे चल कर रोगी की मृत्यु न हुई तो उसके चारों ओर एक संघनित ऊति का प्रावर बन जाता है जो उस स्थान पर उत्पन्न वैपिक उत्पादों का विस्तार और प्रचूषण रोक देता है । एक प्रावर के निर्माण में १ ॥ मास तक का समय लग जाता है ।
विधि के आधेय ( contents) का वर्ण आहरित (greenish) होता है, रक्त के कारण उसमें हलकी बभ्रुता भी आ सकती है तथा उसमें अत्यन्त दुर्गन्ध आने लगती है। विधि में पुञ्जगोलाणु, मालागोलाणु और फुफ्फुसगोलाणु विशेष करके पाये जाते हैं तथा अन्य जीवाणु भी मिल सकते हैं जिनमें नीलपूय कशांगाणु (B. pyocyaneus) भी एक है जो बहुत अधिक देखा जाता है ।
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