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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १८७ इस तरल को परीक्षणार्थ संचित करने के लिए पाँचों स्थानों में से किसी पर भी कटिवेध करना आवश्यक है। अधोमस्तिष्क जलाशयवेध द्वारा अय्यर ने १९२० में तरल निष्कासन को एक सुगम विधि प्रदान की है इसे तब प्रयुक्त करना चाहिए जब कटिवेध सम्भव न हो सके। दोनों स्थानों के तरलों की तुलना करने से भी कई महत्त्व की वस्तुएँ हाथ लग सकती हैं। __मस्तिष्कोद स्वस्थावस्था में रंगहीन और स्वच्छ होता है उसमें वेध के कारण अथवा पूर्व कारणों से रक्त भी मिल सकता है यदि वेध के कारण रक्त अल्प होगा तो थोड़ी देर रखने पर मस्तिष्कोद पुनः वर्णहीन हो जावेगा पर यदि रक्त उसमें पहले से ही उपस्थित होगा तो शोणांशन के कारण उसका रंग पीताभ हो जाता है। दूसरी इसकी पहचान यह है कि यदि तरल दो नलियों में एकत्र करें तो यदि वेध के कारण रक्त निकलता है तो पहली नली में रक्त की मात्रा अधिक और दूसरी में कम होगी परन्तु यदि मस्तिष्क से ही रक्त चला है तो दोनों में उसकी मात्रा समान होगी। अधिक रक्त न होने पर तरल के वर्ण का पीला होना इस बात का प्रमाण है कि सुषुम्ना में कोई अर्बुद बन रहा है। कभी कभी प्रमस्तिष्कीय अर्बुदों और धमनीजारठ्य में भी पीलापन देखा जा सकता है। जालतानिकीय रक्तस्राव होने पर पीतवर्णीय तरल अवश्य देखा जा सकता है।
मस्तिष्कोद पर ११० से १३० मिलीमीटर जल का या ७-९ मि० मी० पारद का निपीड मिलता है। यह पीड़न मस्तिष्कीय सिराओं के पीडन से सदैव अधिक रहता है। यहाँ यह बतला देना भी ज्ञानप्रद है कि वैगफोर्थ नामक विद्वान् ने मस्तिष्क की दीर्घिका सिरा ( longitudinal sinus ) और ब्रह्मोदकुल्या में सम्बन्ध स्थापित कर दिया जो ४ दिन तक लगातार रहा परन्तु सिरा में से एक बूंद रक्त भी मस्तिकोद में इसलिए नहीं गया कि मस्तिष्कोद का पीड़न सिरा के रक्त के पीड़न से अधिक था पर जब अगले दिन कटिवेध करके उसका पीड़न घट गया तो तुरत रक्त तरल में मिल गया। जब अतिबल लवणोदक का सिरान्तःक्षेप किया जाता है तो आसृति ( osmosis ) के कारण मस्तिष्कोद मस्तिष्क से खिंच जाता है और उसका पीडन कम हो जाता है। यदि दोनों मन्याओं पर पीडन डाला जाय तो अन्तःमस्तिकीय पीडन बढ़ जाता है। इसे कैकेन्स्टेट चिह्न (Queekenstedt sign) कहते हैं पर यदि सुषुम्ना और जालतानिका के मध्य में कोई अवरोध होता है तो यह निपीड नहीं बढ़ता पश्चमस्तिष्कखातस्थ अर्बुदों में भी यह नहीं मिलता। ___ स्वस्थ मस्तिष्कोद के प्रति घनमिलीमीटर स्थान में ५ से कभी अधिक कोशा नहीं मिला करते। शिशुओं में कुछ गणन अधिक हो सकता है तथा १० वर्ष की आयु होने पर ही स्वाभाविक हो जाता है ऐसा भी मत है पर बौयड इसको नहीं अनुभव करता। ये सम्पूर्ण कोशा लसीकोशा होते हैं परन्तु रुग्णावस्था में बहुन्यष्टिसितकोशा, बृहज्जालतानिकीय एकन्यष्टिकोशा, प्ररसकोशा, संयुक्त सकणकोशा आदि सभी देखे जा सकते हैं पर इनकी चित्रपट्टी ( film ) तैयार करने के लिए
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