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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
१५१ रोगोत्पादक जीवाणु मूत्र में या वृक्क में देखा जा सकता है। इसमें बहुत थोड़े वृक्क जूटों में विक्षत देखे जाते हैं । जूटों के छोटे छोटे समूहों में प्रावरिक स्थान में रक्तस्राव होता हुआ मिलता है। प्रावरों में बहुन्यष्टि कोशाओं की भरमार भी मिलती है। साथ ही गुच्छकेशालों के अन्तश्छद में प्रगुणन भी मिलता है यह प्रगुणन सम्पूर्ण गुच्छ में भी हो सकता है और उसके एक भाग में भी। क्योंकि इस रोग में बहुत थोड़े वृक्कजूट आहत होते हैं इस कारण वृक्कों की स्वाभाविक क्रिया में कोई बाधा नहीं पहुँचती। इसी कारण इस रोग से रोगी मरता नहीं बल्कि कुछ दिन पश्चात् ठीक हो जाया करता है । तीव्र प्रकार जीर्ण प्रकार में प्रायः बहुत कम परिणत होता है।
तीन प्रकार में अन्तःशाल्यिक वृक्कपाक ( embolic nephritis) आता है। अनुतीव्र दण्डाण्विक हृदन्तःपाक होने पर वहाँ से कोई अन्तःशल्य वृक्क में वृक्कजूट की किसी केशाल को अवरुद्ध कर देता है जिसके कारण यह वृक्कपाक होता है इसके कारण मूत्र में स्विति तथा रक्त मिलते हैं पर चंकि हृद्रोग ही काफी भयंकर होता है इस कारण इसकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं जा पाता। जूटगुच्छ का सम्पूर्ण भाग प्रभावित नहीं होता जो भाग प्रभाव में आता है वह प्रावर से चिपक जाता है तथा यदि रोगी की मृत्यु न हुई तो वहाँ तन्तूत्कर्ष भी हो जाता है। प्रावरिक भाग में रक्तस्राव होने के कारण वृक्क के धरातल पर सूचमलाल विन्दुक देखे जा सकते हैं।
रोगाणुरक्तता ( septicaemia) नामक रोग में रक्तमूत्रता के कारण वृक्क के केशालों का विषाक्त होकर उनकी प्राचीरों में विदरण हो जाता है जो ठीक उसी प्रकार है जैसे त्वचा की केशालों के फटने से नीलोहाङ्कन उत्कोठ ( purpuric rashes ) स्वचा पर हो जाते हैं। ___ जीर्ण प्रकार एक प्रकार का न होकर कई प्रकार का होता है। इस रोग के कई नाम प्रचलित रहे हैं जिनमें कुछ कणात्मक वृक्क (granular kidney ), उत्तरजात संकुचित वृक्क (secondary contracted kidney ), जुद्र लाल या श्वेत वृक्क ( small red or white kidney ), जीर्ण अन्तरालिक वृक्कपाक (chronic interstitial nephritis ) हैं। रसैल नामक विद्वान् ने निम्न ४ प्रकार इस रोग के किए हैं:
प्रथम प्रकार-यह बहुत गम्भीर होता है परन्तु वर्षों चल सकता है। इसमें मुख के शोफ और रक्तमेह का इतिहास मिल सकता है। वृक्क का आकार बहुत कम हो हो जाता है। प्रावर उस पर हलका हलका चिपका रहता है तथा वृक्क धरातल कणात्मक होता है काटने पर बाह्यक पट्टी की चौड़ाई भी कम मिलती है तथा उसमें विमेदाभीय रेखाएँ भी मिलती हैं । वाहिनियों में स्थौल्य प्रकट होने लगता है। अण्वीक्षणतया विभिन्न वृक्क जूटों में विक्षत भी विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं कुछ स्वाभाविक अवस्था में होते हैं, कुछ में अन्तश्छदीय प्रगुणन मिलता है, कुछ में तन्तूत्कर्ष मिलता है। विभिन्न समय में जूटिकाओं पर आघात होने के कारण एक ही प्रकार के विक्षत जिनकी केवल अवस्थाएँ ही भिन्न हों पाये जाते हैं। नालिकाओं में
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