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विकृतिविज्ञान
न होने के कारण गर्भाशयपाक नहीं होता और न उनकी बीजवाहिनियाँ ही व्रणशोथ से व्यथित हो पाती हैं ।
बीजवाहिनियों पर उष्णवात का प्रभाव ( युवतियों में ) विशेषतः देखा जाता है । तीव्र उष्णवातीय बीजवाहिनीपाक ( acute gonorrhoeal salpingitis ) का प्रारम्भ सहसा होता है तथा प्रचण्डगति से होता है साथ में ज्वर, कम्प ( rigor ), औदरिक काठिन्य ( abdominal rigidity ) तथा शूल नामक लक्षण चलते हैं । उपसर्ग के प्रारम्भ होने के कई सप्ताह पश्चात् यह विकार उत्पन्न होने के कारण चिकित्सक को भ्रम हो सकता है कि ये लक्षण किसी अन्य उदर रोग के उत्पन्न होने के पूर्वसूचक हैं। दोनों बीजवाहिनियाँ एक साथ प्रभावित होती हैं, दोनों में उपसर्ग पहुँचने का मार्ग सीधा होता है जो गर्भाशय से चलता है और उपसर्ग का कारण मासिकधर्मचक्र या मैथुनक्रिया इन दोनों में से कोई होता है क्योंकि इन दोनों कारणों से बीजवाहिनी का गर्भाशयीय मुख खुलता है ।
औतिक दृष्टि से एक तीव्र पूयिक व्रणशोथ का स्पष्ट चित्र प्रकट हो जाता है। जिसके कारण बीजवाहिनी का सुषिरक एक प्रकार के पूयीय स्राव के कारण भर जाता है । बीजवाहिनी की श्लेष्मलकला पर उसी प्रकार सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है जिस प्रकार पुरुषमूत्रनाल पर पड़ता है । अर्थात् एक ही आक्रमण से श्लेप्मलकला में विद्रधिभवन ( ulceration ) हो जाता है और जब विद्रधि का उपशम होता है तो पुरुषमूत्रनाल के • समान बीजवाहिनी में भी संकोच ( stricture ) हो जाता है ।
बीजवाहिनियों के ऊपर जो उदरच्छदकला का भाग रहता है उसमें तन्मित् उदरच्छदपाक हो जाता है तथा उसकी प्राचीरों में विद्रधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
वस्था का स्थान जीर्णावस्था ले लेती है जिसमें कभी कभी तीव्रावस्था के प्रवेग ( exacerbations ) आते रहते हैं जिसके कारण रह-रह कर शूल तथा सौम्यरूप में अन्य लक्षण देखे जाया करते हैं ।
बीजवाहिनियों के पुष्पितप्रान्त ( osteum ) का द्वार बन्द हो जाता है क्योंकि उसकी बीजकुल्या (fimbria ) संकुचित होकर अभिलग्न (संसक्त) हो जाती है जिसके कारण बीज या डिम्ब बीजवाहिनी में प्रविष्ट नहीं हो पाता और स्त्री वन्ध्या हो जाती है। बहुधा सुजाक ग्रस्त स्त्रियों को एक बालक होने के पश्चात् फिर कोई बालक उत्पन्न न होने का प्रधान कारण उनकी बीजवाहिनियों के द्वारों का बन्द हो जाना ही है ।
बीजवाहिनियों में संकोच हो जाने से व्रणशोथात्मक जो पूय वहाँ बनता और बढ़ता रहता है उसके निकलने को कोई मार्ग नहीं मिलता जिसके कारण बीजवाहिनी पूय से - ठसाठस भर जाती है और उसका दूरस्थ भाग चौड़ा होजाता है तब उसे सपूय बीजवाहिनी (Pyosalpinx) कहते हैं। उष्णवातीय गोलाणु कुछ समय पश्चात् मर जाता है और उसमें अजीवाणुपूय ( sterile pus ) भरा रहता है | उसका पुनरुपसर्ग आन्त्रदण्डाणु और स्वर्ण पुंजगोलाणु ( staphylococcus aureus ) इन दोनों में से किसी से भी हो सकता है। तीव्रावस्था में ही कभी कभी बीजवाहिनी में से पूय
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