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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
'अब हम आगे गर्भाशयान्तःपाक का वर्णन करेंगे ।
प्रसूतिक गर्भाशयान्त. पाक — अगर्भ गर्भाशय (Non pregnant uterus) उष्णवात गर्भाशयान्तः पाक के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का पाक प्रायः नहीं देखा जाता वह भी दूषित उपकरण प्रवेश के कारण ही सम्भव होता है । परन्तु प्रसवोपरान्त दूषकता लगने के कारण गर्भाशयान्तःपाक बहुत अधिक देखे जाते हैं । उनमें भी जो पाक शोणांशिमालागोलाणुओं द्वारा होता है वह सर्वाधिक घातक होता है । निम्न अन्य रोगाणु भी गर्भाशयान्तःपाक में भाग ले सकते हैं।
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शोणहरितमालागोलाणु, अवातजीवीयमालागोलाणु (anaerobe streptococci) पुंजगोलाणु, उष्णवातगोलाणु आन्त्रदण्डाणु,
वातजनप्रावर गदाणु ( clostridium perfringens )
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इन रोगाणुओं का प्रवेशमार्ग योनि द्वारा उपकरण प्रवेश या अंगुलि प्रवेश द्वारा होता है जब कि प्रविष्टित वस्तुओं का ठीक प्रकार अजीवाणुकरण नहीं किया जाता । एक दूसरा मार्ग अपरा का आत्मजनित ( antogenous ) भी हो सकता है जबकि स्त्री के शरीर में कहीं कोई दूषीकेन्द्र होने पर वहां से रक्त के द्वारा उपसर्गकारी जीवाणु अपरा तक पहुँच कर निज दूषण का प्रभाव डालते हुए पाक कर देते हैं । उस समय अपरा में उपसर्ग स्थानसीमित ( localised ) रहता है । पर अपरा प्रसवोपरान्त एक रक्त से परिपूर्ण ऐसा क्षेत्र बन जाता है जिसकी वाहिनियां तो arrataर्ष के कारण बन्द हो जाती हैं परन्तु जहां सड़न प्रारम्भ होने लगती है । यह अवस्था रोगाणुओं के लिए सर्वोत्तम होने के कारण वे वहां पहुँचकर प्रासूतिक उपसर्ग कर देते हैं । यह उपसर्ग भी २ प्रकार का होता है एक सीमित और दूसरा प्रसर । स्थानसीमितप्रकार में उपसर्गकारी जीवाणु सौम्यस्वरूप के होते हैं और उपसर्ग भी अपरा ( placental site ) के एक भाग में रहता है परन्तु यहाँ जो विषियाँ बनती हैं वे रोगी के रक्त द्वारा शरीर में पहुँचती हैं जिसके कारण पूतिरक्तता ( sapraemia या toxaemia ) उत्पन्न हो जाती है । अपरा और गर्भधराकला (decidua) के अवशिष्ट भागों के सड़ने से एक दुर्गन्धित स्राव ( fetid discharge ) निकलने लगता है । प्रभावित क्षेत्र आहरित और मृत हो जाता है । इस क्षेत्र के पीछे सितकोशाओं और तन्त्वि का एक आवरण उपसर्ग को गहरा जाने से रोके रहता है फिर भी गर्भाशय फूल जाता है तथा उसकी पेशी में शोथ आ जाता है । वह श्लथ (flabby) हो जाता है और उसका आकार बढ़ जाता है । इसके कारण प्रसवोपरान्त स्वाभाविकरीत्या जो संकोचन और अन्तर्वलयन ( involution ) होना चाहिए वह नहीं हो पाता। इसी कारण जब मृतऊति अन्त में गर्भाशयात् पृथक् होती है तो भी गर्भाशय का व्रणन चलता रहता है । कुछ भी हो इस प्रकार से पिण्ड छुड़ाकर रोगी स्वस्थ हो जा सकता है।
प्रसरप्रकार में जहाँ कि अतीव घातक मालागोलाणुज उपसर्ग उपस्थित रहता है अपरा क्षेत्र में व्रणशोधकारी विक्षत बहुत कम देखे जाते हैं । यहाँ तो रोगाणु सीधे १५. १६ वि०
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