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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव (३) सपूयवृक्कोत्कर्ष
१. इस रोग का कारक अधो मूत्रमार्ग से ऊपर की ओर जाता है। यह वृक्कमुखवृक्कपाक के कारण भी होता है तथा उदवृक्कोत्कर्षीय ( hydronephrotic) वृक्क के द्वारा भी हो सकता है।
२. किसी भी कारण से हो इस रोग में वृक्कपूय से लबालब भरा हुआ एक थैला बन जाता है जिसकी प्राचीरें पर्याप्त मोटी होती है। भीतरी वृक्क उति का बहुत अधिक नाश हो जाता है और सम्पूर्ण वृक्क का स्थान एक स्थूल प्राचीर वाली सगह्वर ( loculated ) विद्रधि ले लेती है। प्राचीरों की स्थूलता का कारण होता है परिवृक्ककोशीय संयोजी ऊति का व्रणशोथ। इसके कारण परिवृतविधि भी बनने की आशंका हो उठती है।
३. उपसर्ग का कारण रक्तजनित होता है। मूत्रप्रसेकीय निरोध ( urethral stricture ) अथवा पुरःस्थ ग्रन्थि वृद्धि ( enlargement of the prostate) के कारण बस्ति में मूत्र रुक जाने से बस्तिपाक हो जाता है वहाँ से उपसर्ग ऊपर को चल देता है और दोनों ओर की गवीनियों में होकर वृक्क से बस्ति तक मूत्र भर जाता है इस कारण सपूयवृक्कोत्कर्ष (pyonephrosis) भी साथ ही साथ मिल सकता है। मूत्र बहुत भरा रहने के कारण वृतमुख पर इतना पीडन पड़ता है कि वहाँ रक्तपूर्ति में बाधा पड़ने लगती है जिसके कारण उपसर्ग को और भी अधिक अवसर मिलता है।
४. उपरोक्त वर्णन के कारण २ घटनाएँ घटती हैं-एक तो शरीर में विषमयता (toxaemia) की वृद्धि होती है तथा दूसरे वृक्क ऊति का विनाश होता है। इस कारण या तो पहले कारण से शीघ्र मृत्यु हो जाती है अन्यथा दूसरे कारण से रोग जीर्ण होकर देर में मृत्यु होती है। रोग सौम्य होने पर रक्षा भी सम्भव है जिसमें शस्त्रकर्म और नवाविष्कृत द्रव्यों का प्रयोग अनिवार्यतः करना पड़ता है।
(१३) अधोमूत्रमार्ग पर व्रणशोथ का परिणाम इसमें बस्तिपाक ( cystitis ) तथा मूत्रनालपाक ( urethritis) का वर्णन किया जावेगा।
afeagra ( Cystitis ) बस्ति में चाहे कितने ही जीवाणुओं से युक्त या कैसा ही मूत्र बहे कोई भी विकार तब तक नहीं आता जब तक कि बस्ति को कोई आघात ( trauma ) न लगे या मूत्रप्रवाह बन्द न हो जाय । इन दोनों में से किसी के भी कारण बस्ति में व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जा सकती है ।
बस्तिपाककारक सर्वप्रमुख आन्त्रदण्डाणु माना जाता है उसके अतिरिक्त निम्न अन्य भी बस्तिपाक कर सकते हैं :
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