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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव धामनिक-जारव्य तथा हृदय की अतिपुष्टि इस रोग के प्रधान लक्षण हैं। अन्तरालित ऊति में तन्तूत्कर्ष पर्याप्त मिलता है। अभिवाही (afferent) जूटीय धमनियों में स्नेह-काचरीय ( of fatty hyaline type ) धामनिक-जारठ्य पूर्ण प्रगल्भ स्वरूप का मिलता है । नालिकाओं में विशोणिक विहास मिलता है मृत्यु का कारण मिहरक्तता तथा हृद्भेद होता है।
नाभ्यवृक्कपाक के सम्पूर्ण प्रकारों में निम्न लक्षण सर्वसामान्यरूप से पाये जाते हैं : प्रत्यक्षतया१. वृक्क के आकार का अत्यधिक प्रहासन ( reduction in size ) २. प्रतिधारण कोष्ठों की उपस्थिति ( retention cysts ) ३. सिध्मिक एवं जालकीय तन्तूत्कर्ष (patchy and reticular fibrosis) ४. कम या अधिक अंश में धामनिक जारठ्य ( arterio sclerosis) अण्वीक्षतया१. वृक्काणुजूट सभी आहत नहीं होते जो बचे रहते हैं वे परम पुष्ट हो जाते हैं
( healthy hypertrophied glomeruli )। २. अस्वस्थ वृक्काणुजूटों में विक्षत निर्माण की विभिन्न अवस्थाएँ देखी जाती हैं
(different stages of development of the lesions ), ३. जूटिकीय केशालों में अन्तश्छदीय प्रगुणन विशेष होता है (endothelial
proliferation of glomerular capillaries ) i नैदानिकतया१. रोग का प्रारम्भ शनैः शनैः होता है ( onset insidious)। २. कोई विगत इतिहास नहीं मिलता (without any previous history) ३. रक्तमेह ( haematuria)। ४. रक्तनिपीडाधिक्य ( raised blood pressure ) या रक्त के निपीडन की
वृद्धि का संकेत जिसके कारण हृदय की परम पुष्टि ( hypertrophy of
cardiac muscle ) , ५. स्वल्प वितिमेह ( slight albuminurea)। ६. मृत्यु का कारण मिहरक्तता या हृद्भेद । ७. रोग वर्षों चलता है। .
यद्यपि ऊपर हमने नालिकीय वृकपाक या तीव्र वैषिक वृक्कोत्कर्ष का उल्लेख किया है परन्तु वह व्रणशोथात्मक (inflammatory ) न होकर विहासात्मक ( degenerative ) रोग होने से उसका वर्णन विहासों के साथ किया गया है। अतः अब हम सपूय वृक्कपाक ( suppurative nephritis ) का वर्णन करते हैं।
सपूयवृक्कपाक सपूय वृक्कपाक भी २ रूपों में बतलाया जाता है एक को पूयरक्तीय वृक्क (pyaemic kidney ) या प्रसर सपूय वृक्कपाक (diffuse suppurative
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