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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
१४१ जीर्ण अवस्था-किसी किसी रोगी में पहले तीव्रावस्था फिर अनुतीव्रावस्था होकर तब जीर्णावस्था आती है परन्तु कुछ में रोग का पता केवल तभी लगता है जब वृक्क अपना कार्य बन्द करना प्रारम्भ करते हैं। ऐसे रोगी इतना तो कहते हैं कि कभी उन्हें थोड़ा शोथ हुआ था या रक्तमूत्रता हुई थी या कुतिशूल हुआ था पर उसकी कोई विशेष चिन्ता उन्होंने की हो ऐसा नहीं बतलाते। यहाँ तक कि धीरे-धीरे रोग जीर्णावस्था को पहुँच जाता है। ये सभी रोगी प्रायः नवयुवक, नवयुवती या अधेड़ होते हैं और रोग का कारण गले की खराबी, लोहितज्वर ( scarlatina ) या श्वसनक होता है।
विकृतिदृष्टया जीर्ण अवस्था, तीव्र और अनुतीव्र अवस्थाओं में हुए घावों के भरने की अवस्था है जिसमें विशेष उल्लेखनीय तन्तूत्कर्ष का होना है। इस अवस्था में वृक्क जति का सक्रिय विनाश कम होने लगता है, मलवा हटाया जाता है । आहत वृक्काणुओं का स्थान तान्तव ऊति ले लेती है तथा जो वृक्काणु जीवित रहते हैं उन्हें अधिक कार्य करना पड़ता है इस कारण वे परमपुष्ट हो जाते हैं। जितने वृक्काणु सजीवावस्था में रह जाते हैं उसी के अनुपात में रोगी की आयु भी चलती है। अधिकतर रोगी इस अवस्था में २ वर्ष तक जीते हैं और उनकी मृत्यु का कारण मिहरक्तता (uraemia) होता है कभी कभी अन्य उपसर्गों के कारण हृद्भेद होकर भी मृत्यु होती हुई देखी गई है। कभी कभी मृत्यु का कारण परिहृच्छदपाक या उदरच्छदपाक भी होता है।
इस रोग में वृक्क का आकार घटे यह आवश्यक नहीं है वह अपनी स्वाभाविक आकृति भी बनाए रख सकता है। इसके बाह्यक की चौड़ाई कुछ कम हो जाती है तथा उसके चिह्नन ( markings ) कुछ अस्पष्ट हो जा सकते हैं उसका प्रावर कुछ चिपक जाता है और यदि तन्तूकर्ष का क्षेत्र बाह्यक में हुआ तो उसका धरातल सूक्ष्म कणों से युक्त भी देखा जा सकता है। वृक्क देखने में पाण्डर होता है जिस पर विमेदाभीय रेखाएँ अङ्कित हो जाती हैं । धमनी जारठिक परिवर्तनों के कारण कुछ धमनियाँ उभरी हुई भी देखी जा सकती हैं।
अण्वीक्षण से वृक्क जूटों में काचरीकरण ( hyalinisation) तथा तन्तूत्कर्ष मिलते हैं । धमनिकाओं का काचरीकरण और आदिप्रावर से अभिलग्नता विशेष देखी जा सकती है। यद्यपि वृक्काणुओं का पूर्णतः नाश नहीं देखने में आता परन्तु अधिकांश में कम या अधिक आघात तथा तन्तूत्कर्ष देखा जा सकता है। उत्तरजात धामनिक जारव्य के कारण विशोणिक ऊतिमृत्यु मिल सकती है। सजीव वृक्काणुओं की परम पुष्टि महत्त्वपूर्ण है । इसके लिए सर्वप्रथम नालिकाएँ विस्फारित हो जाती हैं तथा उनका अधिच्छद चिपटा हो जाता है जो आगे चलकर शायद पुनर्जनन के कारण आयतज या स्तम्भाकार हो जाता है । वृक्कजूट भी प्रवृद्ध हो जाता है इस सबके कारण वृक्काणु में अधिक कार्य करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। कभी कभी नालिकाओं के ऊति विस्फार के कारण उसकी प्राचीर फट जाती है और वे दूसरी नालिका की फटी हुई प्राचीर से
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