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विकृतिविज्ञान मिल कर सद्भवग्रन्थि या कोष्ठ ( cyst ) का निर्माण करती हैं। ऐसे कोष्ट जीर्णनाभ्य वृक्कपाक में जितने अधिक मिलते हैं उतने इधर नहीं देखे जाते। बहुत सी नालिकाओं में जूटों से होकर रक्त न आ सकने के कारण उनकी अपुष्टि हो जाती है और फिर उनका स्थान तान्तवऊति ले लेती है। अन्तरालितऊति में भी काफी तन्तूत्कर्ष होता है। पर वह काफी इसलिए कहा जाता है क्योंकि अनेक नालिकाएं तान्तव बनकर अन्तरालितऊति में समा जाती हैं । इस क्षेत्र में लसीकोशाओं और प्ररसकोशाओं की भरमार भी देखी जाती है।
__ आहत वृक्काणुओं के अभिलोपन के कारण तन्तत्कर्ष हो जाने से मूत्र में उसके द्वारा श्विति का निर्गमन नहीं हो पाता जिसके कारण रक्तरस में प्रोभूजिने बढ़ने लमती हैं जिसके परिणाम स्वरूप शोथ घट जाता है। मूत्र में विति का तो आभास मात्र ही मिलता है परन्तु रक्त का आना बन्द नहीं होता । ज्यों ज्यों तन्तृत्कर्ष बढ़ता है मिह का मूत्र द्वारा विनिर्गमन कम होने लगता है जिसके कारण रक्त में मिह ( urea ) की मात्रा बढ़ने लगती है। ज्यों ज्यों वृक्क का कार्य रुकता है शरीर में भास्वर का प्रतिधारण हो जाता है जिसके कारण भास्वीयिक अम्लोत्कर्ष प्रारम्भ होने लगता है । रोगी का मूत्र स्थिर स्वरूप का ( fixed ) देखने में आता है क्योंकि वृक्त में उसे अधिक संकेन्द्रित करने की शक्ति जाती रहती है । अग्लोत्कर्ष के कारण अस्थियों का विचूर्णियन ( decalcification ) होने लगता है। बच्चों में तो यह वृक्कजन्य फक्क ( renal rickets ) का रूप धारण कर लेता है जिसके साथ साथ परावटुका ग्रन्थि की परमपुष्टि भी मिलती है। फुफ्फुसों, उपत्वक ऊतियों और धमनियों की प्राचीरों में चूर्णियन मिलने लगता है । वृक्कजन्य विशोणता के कारण रक्तनिपीड ( blood-pressure ) उत्तरोत्तर वर्धमान होने लगता है। वृक्तधमनिओं में धमनी जारख्य (arterio sclerosis ) के लक्षण प्रकट होने लगते हैं जिसके कारण हृदय में भी परमपुष्टि होने लगती है। रोगी के इस चित्र को देखने से कोई भी यह कह सकता है कि उसका जीवन अधिक दिन नहीं चल सकता। उसे मिहरक्तता ( uraemia) मार सकता है, हृद्भेद उसकी जान ले सकता है अथवा मस्तिष्कगत रक्तस्राव उसे इस असार संसार से बिदा कर सकता है।
नाभ्यजूटिकीय वृक्कपाक ( Focal glomerulo-nephritis) प्रसर जूटिकीय वृक्कपाक का वर्णन समाप्त करके अब हम नाभ्य ( focal ) वृक्कपाक का वर्णन प्रारम्भ कर रहे हैं। इसके २ प्रकार प्रसिद्ध हैं। एक तीव्र प्रकार ( acute type ) और दूसरा जीर्ण प्रकार ( chronic type )।
तीन प्रकार यह प्रायः बालकों में विशेष होता है। इसका कारण मालागोलाण्विक तुण्डिकाग्रन्थिपाक या विसर्प हुआ करता है। इस रोग से पीडित व्यक्ति का मूत्र रक्त, निर्मोक तथा विति से युक्त होता है परन्तु न मूत्र की मात्रा कम होती है और न शरीर पर कहीं शोथ ही होता है। मूत्र में जितने परिवर्तन देखे जाते हैं वे ज्वर की तीव्रता में ही प्रारम्भ होते हैं बाद में नहीं जैसा कि प्रसर वृक्कपाक में देखा जाता है ।
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