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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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केशालबाह्य प्रकार—यह दूसरे प्रकार से अधिक गम्भीर रोग है इसका प्रारम्भ रोग के सहसा आक्रमण होने के साथ होता है । यह १३-२ मास रहता है और मृत्युकारक होता है मृत्यु का कारण वृक्ककार्याभाव होता है । इसमें वृक्क सूज जाता है उसका धरातल धूसर वर्ण का हो जाता है जिस पर उपप्रावरिक नीलोहाङ्कीय रक्तस्रावों के धब्बे बने होते हैं । रक्तहीन वृक्कटिकाओं के धूसर वर्ण के विन्दु स्थान स्थान पर उसमें चमकते हैं । कटे हुए धरातल पर बाह्यक की पट्टी ( band ) प्रवृद्ध हो जाती है । उसमें ( बाह्यक में ) जो अत्यधिक शोफ और मेघसम शोथ हो जाता है उसके कारण बाह्यक और मज्जक का पता लगाना कठिन हो जाता है और सभी कुछ उसमें अस्पष्ट हो जाता है । औतिकया ( histologically ) इस समय गम्भीर स्वरूप का नालिकीय विहास होता है तथा आदिप्रावर के अधिच्छद का पर्याप्त परमचय देखा जाता है । अन्तरालित ऊति भी सशोफ ( oedematous } हो जाती है । उसमें स्थान स्थान पर व्रणशोथकारी बहुन्यष्टि, लसी तथा प्ररस कोशाओं की भरमार हो जाती है अनेक तन्तुरुह ( fibroblasts ) भी देखे जा सकते हैं जो तन्तूस्कर्ष के प्रारम्भ की सूचना देते हैं ।
इस रोग के मूत्र में रक्त खूब मिलता है, सब प्रकार के निर्मोक देखे जाते हैं और विति भी पर्याप्त मिलती है ।
केशालान्तर प्रकार — अनुतीघ्र वृकपाक के इस प्रकार का आरम्भ अपेक्षाकृत सौम्य होता है । यह उतना गम्भीर भी नहीं है । एक वर्ष तक देखा जा सकता है। यह प्रकार प्रथम प्रकार से अधिक रोगियों में मिलता है ।
इस रोग में वृक्क प्रवृद्ध हो जाता है और उसका रंग श्वेत ( पाण्डुर ) हो जाता है इसी कारण इस रोग को बृहत् श्वेत वृक्क ( large white kidney ) भी कहा जाता रहा है । इसमें स्नेह के कारण आपीत ( yellowish ) रेखाएँ भी खिंची हुई दिखाई देती हैं। वृक्क की प्रमुख विशेषता है नालिकीय अधिच्छद में पैत्तव सुoयुद (cholesterol esters) तथा विमेदाभ स्नेहों (lipoid fats) का संचित होना यह विहास नहीं बल्कि इन द्रव्यों का अन्तराभरण ( भरमार ) है । क्योंकि वृक्कजूटों में रक्त से इतनी अधिक श्विति निकल जाती है कि जब तक रक्त नालिकाओं तक पहुँचता है पैत्तव सुव्युदों की विलेयता रक्त रस में बहुत घट जाती है, इसके कारण ये पैव सुव्यु नालिकीय अधिच्छद में अवसादित ( deposited ) हो जाते हैं । स्नैहिक अवसादन के कारण इस वृक्क को विमज्जि वृक्क ( myelin kidney ) भी कहा जाता है । इन्हीं अवसादनों के कारण वृक्क का वर्ण श्वेत पाण्डुर हो जाता है । उसकी श्वेतता में वृद्धि करने में दूसरा कारण वृक्क में सूजन का होना है जो रक्तपूर्ति करने वाली वाहिनियों पर दबाव डालती है और तीसरा परन्तु साधारण हेतु उत्तरजात अरक्तता है जो इस अवस्था में सदैव देखी जाती है ।
वृक्कों के कटे हुए धरातल को देखकर मज्जक और बाह्यक में फर्क करना बहुत कठिन पड़ता है । नीलोहाङ्कीय रक्तस्राव प्रायः इसमें नहीं देखे जाते ।
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