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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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की विभिन्न अवस्थाएँ मिलती हैं जिसके कारण किसी में आघात की मात्रा स्वल्प और किसी में अत्यधिक देखी जाती है । कुछ पूर्णतः स्वस्थ मिलते हैं, कुछ में व्रणशोथ का प्रारम्भ होता हुआ देखा जाता है तथा कुछ में तन्तूकर्ष पूरा पूरा हुआ देखा जाता है इन सब का तात्पर्य यह निकलता है कि विभिन्न वृक्काणुओं पर विभिन्न काल में आघात होता है । प्रसरित और नाभ्य इन दो प्रकार के वृक्कपाकों के चित्रों का देखने वाला व्यक्ति यह भले प्रकार समझ सकता है कि प्रसर वृक्कपाक ( diffuse nephritis) का प्रारम्भ सहसा होता है वृक्काणुओं में एक साथ व्रणशोथ का प्रभाव होता है जिसके कारण पहले तीव्रावस्था फिर अनुतीघ्रावस्था और तत्पश्चात् जीर्णावस्था आती है । नाभ्यवृक्कपाक में व्रणशोथ का प्रभाव वृक्काणुओं पर एक साथ और एक सा न पड़ने से तीव्रावस्था अनुतीव्रावस्था तथा जीर्णावस्था स्पष्ट प्रकट नहीं होती । नाभ्यवृक्कपाक या तो तीव्रावस्था में मिलता है जो शीघ्र सुधर जाता है और कई छोटे छोटे तीव्र आक्रमण मिलकर एक जीर्णावस्था का निर्माण करते हैं । इसका दोनों अवस्थाओं में गाम्भीर्य नहीं मिलता । प्रसर वृक्कपाक एक गम्भीर स्वरूप का रोग है जिसमें किसी भी अवस्था में मृत्यु देखी जा सकती है ।
चाहे प्रसर हो या नाभ्य जूटिकीय वृक्कपाक की इकाई वृक्काणु का विज्ञत है । एक वृक्काणु में जो होता है उसे जान लेने पर हम वृक्कपाक द्वारा होने वाली विकृति का ज्ञान कर सकते हैं । कारण कोई भी हो जूटिकीय वृक्कपाक का परिणाम प्रभावित वृक्काणु पर एक साथ ही पड़ता है । जिस वृक्काणु में रोग लगता है उसमें एक उत्तरोत्तर प्रगतिशील अपूय व्रणशोथ की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ देखी जाती हैं । पहले एक तोत्र व्रणशोथात्मक अवस्था आती है उसके पश्चात् विहासात्मक अवस्था देखी जाती है जिसमें स्नैहिक परिवर्तन मिलते हैं तथा अधिच्छदीय मृत्यु ( epithelial necrosis ) देखी जाती है तदुपरान्त तन्तूत्कर्ष द्वारा उपशम होता है जिसके कारण प्रायः आहत वृक्काणु का अभिलोपन ( obliteration ) हो जाता है । प्रथमोत्पन्न तावस्था में जब कि मृत्यु एक या दो दिन में ही आ सकती है जूटिकीय केशालों में वाहिन्यस्तम्भ ( vasoparalysis ) हो जाती है । इस वाहिनी विस्फारण के ही कारण जूट पर्याप्त फूल जाती है और सम्पूर्ण प्रावरिक अन्तराल ( .capsular space ) को घेर लेती है | जब कई वाहिगुच्छ इस प्रकार प्रभावित हो जाते हैं तो इस वाहिन्यस्थैर्य के कारण वृक्कों में होकर रक्त कम मात्रा में प्रवाहित होने लगता है जिसके कारण जूटिकीय पावित मूत्र की राशि भी कम हो जाती है जिसका परिणाम अल्पमूत्रता ( oliguria ) और मिहरक्तता ( azotaemia ) में हो जाता है । अल्पमूत्रता को और अधिक अल्प करने का काम नालिकाओं द्वारा होता है कि जो भी थोड़ा बहुत मूत्र रक्त के पावन से जूट भेजते हैं उनमें से बहुत कुछ वे पुनः चूषित कर लेती हैं ! इस वाहिन्यस्तम्भ के साथ साथ ही केशालों की प्राचीरों में होकर रक्त रस और सितकोशाओं का च्याव हो जाता है जिसके कारण प्रावरिक अन्तराल में तन्त्विमत् जालक ( fibrinous reticulum ) बन जाता है । वाहिनियों से कुछ लालकण
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