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विकृतिविज्ञान chemistry ) में कोई परिवर्तन नहीं होकर वह स्वाभाविक अवस्था में ही रहती है । आगे चलकर इस पूरक बहुमूत्र में सम्पूर्ण क्षेप्योत्पादों को निकाल बाहर करने की शक्ति रहती नहीं तथा और अधिक बहुमूत्रता बढ़ाई नहीं जा सकती इस कारण मिह रक्तता ( azotemia ) हो जाती है जिसके कारण मिह तथा अन्य पदार्थ रक्त में संचित होने लगते हैं। नीरेयों की मात्रा रक्त में विशेष नहीं बढ़ती। साथ ही स्फटाभों का संकेन्द्रण, उदजनायन का संकेन्द्रण मूत्र में स्थिर अनुपात का होने लगता है। इधर मूत्र और अधिक तनु होते होते रक्त के रस के समबल तक हो जाता है।
मूत्रीय घटकों के प्रवृत्य संकेन्द्रण की शक्ति का नियमन कौन कौन कारक (factors) करते हैं यह कहना कठिन है परन्तु उनमें से एक उपवृक्क्य ग्रन्थि का बाह्यक न्यासर्ग ( cortical hormone of the adrenal ) जिसके अभाव में मूत्र द्वारा जल और नीरेयों की विपुल मात्रा शरीर के बाहर चली जाती है । दूसरा पोषणिका ग्रन्थिका प्रतिमूत्रल न्यासर्ग ( anti diuretic hormone of the pituitary body ) है जिसकी कमी से भी बहुमूत्रता हो सकती है। तीसरा कारण उपगलग्रन्थि न्यासर्ग ( parathormone ) हो सकता है जो भास्वीयों के उत्सर्जन का नियन्त्रण करता है। इन सब का वृक्कपाक से कहाँ तक सम्बन्ध हो सकता है उसे देखना है।
वृक्क्य व्रणशोथ (Renal Inflammation)-वृक्कों पर व्रणशोथ का परिणाम तीव्र और जीर्ण सपूय और अपूय किसी भी प्रकार का हो सकता है। अपूयात्मक विक्षतों के वर्ग को वृक्कपाक ( nephritis ) कहा जाता है। जिसका विस्तृत वर्णन हम आगे करेंगे।
वृक्कपाक ( Nephritis) वृक्कपाकों तथा वृक्क्य धमनीदाढर्य को सम्मिलित रूप से ब्राइटामय ( Brights disease) भी कहा जाता रहा है। पर आज हम वृक्कपाक नाम से ही सम्पूर्ण वर्णन उपस्थित कर रहे हैं । वृक्कपाक २ प्रकार के होते हैं-१. जूटीयवृक्कपाक (glomerulo-nephritis) तथा २-नालिकीय वृक्कपाक (tubular-nephritis)। नालिकीय वृक्कपाक में नालिकीय अधिच्छद का इतना विनाश हो जाता है कि उसे तीव्र वैषिक वृक्कोत्कर्ष ( acute toxic nephrosis) कहा जाता है। नीचे हम इन दोनों वृक्कपार्को का वर्णन कर रहे हैं:
जूटीय वृक्कपाक (glomerulo-nephritis)-नैदानिक दृष्टि से (clinically ) इस वृक्कपाक को तीव्र, अनुतीव्र और जीर्ण इन तीन भेदों में विभक्त कर सकते हैं, परन्तु औतिकीय दृष्टि से ( histologically ) विक्षत प्रसरित या नाभ्य रूप में वितरित हुए मिलते हैं । जहाँ पर विक्षत प्रसरित ( diffused ) होते हैं वहाँ अधिकांश वृक्काणु आहत हुए देखे जाते हैं और उनमें आघात की मात्रा भी एक समान पाई जाती है । नाभ्यविक्षतों ( focal lesions ) में वृक्काणुओं में व्रणशोथ
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