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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
१२५ स्कर्ष हो सकता है। बहुत से रोगों में, जिसमें विषमज्वर और मन्थर भी उदाहरणस्वरूप लिए जा सकते हैं, प्लीहा कीटाणुओं के संग्रहालय का कार्य करती है, और ऐसे रोगों में प्लैहिक सिरा का उत्तरजातपाक (secondary phlebitis of the splenic vein) होकर यकृत्पाक हो सकता है। विषमज्वर के कारण यकृदाल्युत्कर्ष देखा जाता है । प्लैहिक अरक्तता में पहले प्लीहोत्कर्ष ( cirrhosis of spleen ) होता है फिर यकृद्दाल्युत्कर्ष देखा जाता है। प्लैहिक और केशिकाभाजि सिराओं में एक साथ पाक होता हुआ बहुधा देखा जाता है जिसके कारण दोनों में घनास्रोत्कर्ष हो सकता है। यदि इस रोग में प्लीहा का उच्छेद कर दिया जाय तो यकृद्दाल्युत्कर्ष होने में बहुत विलम्ब होता हुआ देखा जाता है । इससे यह प्रकट होता है कि एक प्रकार की विषि उपस्थित रहती है जो पहले प्लीहा को और फिर यकृत् को प्रभावित करती है। जब कि केशिकाभाजि यकृद्दाल्युत्कर्ष में यकृत् और प्लीहा दोनों ही प्रभावित होते हैं परन्तु पहले यकृत् तत्पश्चात् प्लीहा रोगग्रस्त होती हुई देखी जाती है। यह विषि किस प्रकार है यह दोनों दशाओं में कहना सम्भव नहीं देखा जाता। प्लीहा और यकृत्. दोनों को आयुर्वेद ने एक ही साथ रखा है दोनों के रोगों की चिकित्सा भी एक सी. ही है वह इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध में पर्याप्त विश्वास करता है जिसकी ओर आधुनिक जगत बढ़ता-सा प्रतीत होता है।
वातिक व्याधियों ( nervous diseases) में भी यकृद्दाल्युत्कर्ष पाया जाता है। विलसन ने शुक्तिकन्द के उत्तरोत्तर विहास ( progressive degeneration of the lenticular nucleus ) नामक रोग में, जिसे विलसन का रोग भी कहते हैं, यकृद्दाल्युत्कर्ष की उपस्थिति स्वीकार की है। उस रोग में प्लीहोदर तथा प्लीहा का तन्तूत्कर्ष होकर फिर बाद में जलोदर हो जाता है। मस्तिष्कपाक ( encephalitis ) के बाद यकृद्दाल्युत्कर्ष होने के उदाहरण भी मिलते हैं ।
औपसर्गिक यकृत्पाक के विक्षतों का रोपण होते होते भी यकृद्दाल्युत्कर्ष देखा जा सकता है। ___ इन सम्पूर्ण उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखने से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि केशिकाभाजि यकृद्दाल्युत्कर्ष कोई विशिष्ट व्याधि न होकर यकृत् पर अनेक हेतुओं के कारण होने वाले आघातों का परिणाम मात्र है।
बहुखण्डीय यकृद्दाल्युत्कर्ष में क्या विकृति होती है ?
इस प्रश्न का उत्तर विकृतिविज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इसे हम प्रत्यक्ष और अण्वीक्ष दोनों प्रकार से समझ सकते हैं। प्रत्यक्ष यकृत् को देखने से रोग के प्रारम्भ में हमें वह उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ मिलता है जिसके कारण उसके किनारे तीक्ष्ण न रहकर गोल और ढालू हो जाते हैं कभी कभी यकृत् निरन्तर बढ़ता जाता है और मृत्यु हो जाती है पर कभी कभी रोग और आगे बढ़ता है जब कि यकृत् के कोशाओं में अपोषक्षय होता है और जो तन्तूत्कर्ष हुआ रहता है वह संकुचित होता है.
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